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________________ 68 अपभ्रंश भारती - 8 इसका अनुवाद किया गया है - "यक्षों ने दोनों धनुष बताते हुए उनसे कहा।" यहाँ 'अल्लवियइँ' क्रियापद के अर्थ की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया गया है। अल्लवियइँ का अर्थ है - 'अर्पित किये'। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - 'यक्षों ने (दोनों) धनुष अर्पित किये।' 13. लक्खणहों अट्ठ परिकप्पियउ ।। 21.14.3 प्रस्तुत अनुवाद में इसका अर्थ है - "शेष आठ लक्ष्मण को विवाह दीं।" यहाँ परिकप्पियउ' का अर्थ होना चाहिए - 'परिकल्पित किया' अर्थात् 'निश्चय किया'। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - ‘शेष आठ लक्ष्मण को देने का निश्चय किया।' 14. दोणेण विसल्ला-सुन्दरिय कण्हहाँ चिन्तविय मणोहरिय ॥ 21.14.4 इस पंक्ति का अर्थ किया गया है - "द्रोण ने भी अपनी सुन्दरी कन्या लक्ष्मण को विवाह दी।" यहाँ 'चिन्तविय' पद का अर्थ 'विचार किया' अथवा 'निश्चय किया' होना चाहिए। 'विसल्ला' का रूपान्तर 'विशल्या' है। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - 'द्रोण ने भी मनोहारिणी विशल्यासुन्दरी (को) लक्ष्मण को देने का विचार किया।' 15. पहु पभणइ रहसुच्छलिय-गत्तु ॥ 22.1.3 __ इस पंक्ति का उपलब्ध अनुवाद है - "राजा हर्ष से गद्गद स्वर में बोले।" यहाँ 'रहसुच्छलिय-गत्तु' का अर्थ 'हर्ष से गद्गद' किया गया है, जो प्रासंगिक नहीं मालूम पड़ता। हर्ष की स्थिति में विषाद का दृश्य चौंकानेवाले होता है, हर्षित करनेवाला नहीं। अतः यहाँ 'रहसुच्छलिय-गत्तु' (रभसुच्छलित-गात्र) का अर्थ 'सहसाप्रकम्पित-शरीर' होना चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत पंक्ति का अर्थ होगा - 'अचानक चौंक कर राजा बोले।' 16. गय-दन्तु अयंगमु दण्डपाणि ॥ 22.1.8 इसका उपलब्ध अर्थ है - "दाँत लम्बे, हाथ में दण्ड।" यहाँ गय-दन्तु' का अर्थ संभवतया 'गजदन्त' किया गया है और 'अयंगमु' शब्द को सर्वथा छोड़ दिया है। 'गय-दन्तु' का प्रासंगिक अर्थ 'गत-दन्त' अर्थात् दन्तरहित होना चाहिए और 'अयंगमु' का 'अजंगम' अर्थात् चलने में असमर्थ। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - 'दन्तरहित, चलने में असमर्थ और हाथ में दण्ड लिये।' 17. पडिहन्ति ण विजाहर-तियाउ ॥ 22.5.4 __ प्रस्तुत पंक्ति का उपलब्ध अर्थ है - "उसे किसी भी विचारधारा की इच्छा नहीं थी।" यहाँ 'पडिहन्ति ण' का अर्थ है - 'नहीं भाती है' और 'विज्जाहरतियाउ' का 'विद्याधर-कामिनियाँ'। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होना चाहिए - 'विद्याधर-कामिनियाँ उसे नहीं भाती हैं (थीं)।' 18. अच्छहु पुणु वि घरें सत्तुहणु रामु हउँ लक्खणु । अलिउ म होहि तुहुँ महि भुजें भडारा अप्पुणु ॥ 22.10.9
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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