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________________ अपभ्रंश भारती -8 67 इन पंक्तियों का उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "बर्बर, शबर, पुलिन्द और म्लेच्छों से अपनी सेना घिर जाने पर राजा जनक ने बहुत भारी आशंका से बालकों की सहायता के लिए राजा दशरथ के पास लेखपत्र भेजा।" यहाँ 'कणय' शब्द की ओर दृष्टि नहीं गयी है, साथ ही 'गरुयासधएँ' तथा 'बाल सहायहों' के प्रासंगिक अर्थ को भी ध्यान में नहीं रखा गया है। कणय' शब्द का अर्थ राजा जनक का भाई कनक 'गरुयासधए' का अर्थ 'बड़े विश्वास के साथ' और 'बालसहायहों' का 'बाल्यकाल के सखा को' होना चाहिए। इस प्रकार उपर्युक्त दोनों पंक्तियों का अर्थ होगा - 'दुष्प्रेक्ष्य बर्बर, शबर, पुलिन्द आदि म्लेक्षों के द्वारा जनक और कनक घेर लिये गये। तब उन्होंने बड़े विश्वास के साथ अपने बाल्यकाल के सखा राजा दशरथ को पत्र भेजा।' 8. दूसहु सो जि अण्णु पुणु लक्खणु ॥ 21.7.2 इसका उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "उनके साथ दूसरा केवल दुःसह लक्ष्मण था।" यहाँ पंक्ति के सभी शब्दों पर ध्यान नहीं दिया जा सका है। इसका शब्दानुरूप अर्थ होगा - एक तो वे (स्वयं) ही दुःसह थे, फिर उनके साथ दूसरे लक्ष्मण भी थे। 'सो जि' का अर्थ - सः (स्वयम्) ही - 'वह (स्वयं) ही' है। 9. जणय-कणय रणे उव्वेढाविय ॥ 21.7.4 __इसका उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "उन्होंने सीता का उद्धार किया।" यहाँ जणय-कणय' का अर्थ 'जनक-कन्या 'समझ लिया गया है । यथार्थ में यह समस्तपद 'जनक और कनक' अर्थ रखता है। अत: इसका प्रसंगानुकूल अर्थ होना चाहिए - 'उन्होंने रण में जनक और कनक को मुक्त करा दिया।' 10. तं जइ होइ कुमारहों आयहाँ तो सिय हरइ पुरन्दर-रायों ॥21.10.5 इस पंक्ति का अनुवाद किया गया है - "वही इस कुमार के योग्य है, अतः पुरन्दरराज जनक से उसका अपहरण कर लाओ।" यहाँ 'जइ', 'होइ', 'सिय' और 'पुरन्दर-राय' पद का अर्थ ही छोड़ दिया गया है। जइ' का अर्थ 'यदि', 'होई' का 'हो', 'सिय' का 'श्री' (शोभा) और 'पुरन्दर-राय' का 'पुरन्दर-राज' अर्थात् देवराज इन्द्र है। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा - 'वह यदि इस कुमार की हो जाये, तो यह देवराज इन्द्र की शोभा का भी अपहरण कर ले अर्थात् देवेन्द्र की शोभा भी इसके समक्ष तुच्छ हो जाये।' 11. जक्ख-सहासहुँ मुहु दरिसावइ ॥ 21.12.8 इसका उपलब्ध हिन्दी अनुवाद है - "हजारों यक्ष भी अपना मुँह दिखाकर रह गये।" यहाँ वाक्यरचना पर ध्यान नहीं दिया जा सका है। सावधानी से देखने पर इसका प्रासंगिक अर्थ होगा - 'सहस्रों यक्षों को अपना मुँह दिखा सके।' 12. धणुहराई अल्लवियइँ जक्खेंहिं ॥ 21.13.3
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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