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अपभ्रंश भारती -8
नवम्बर, 1996
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पउमचरिउ के हिन्दी अनुवाद पर
कुछ टिप्पणियाँ
- श्री देवनारायण शर्मा
अपभ्रंश महाकाव्य 'पउमचरिउ' का हिन्दी अनुवाद स्व. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन' का है। डॉ. जैन अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य के प्रखर उत्साही अध्येता के रूप में स्वीकृत हैं। इस अनुवाद के क्रम में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि "इतने बड़े कवि के काव्य का पहली बार में सर्वाङ्ग सुन्दर और शुद्ध अनुवाद हो जाना संभव नहीं है।" अतः प्रस्तुत निबन्ध में अनुवादक के दोषान्वेषण के लिए नहीं, अपितु, जिज्ञासु छात्रों एवं शिक्षकों की तृप्ति हेतु मैंने कुछ टिप्पणियाँ लिखी हैं । सम्प्रति मैंने ग्रन्थ के उसी प्रसंग पर विचार किया है जो विश्वविद्यालयों में पाठ्यांश के रूप में स्वीकृत हैं। विचारित अंश
1. तो तं वयणु सुनेवि कलियारउ
वद्धावणहँ पधाइउ णारउ ॥ 21.1.8 इस पंक्ति में 'वद्धावणहँ' पद का अर्थ 'वर्धमाननगर' किया गया है। इसप्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ - "यह जानकर कलहकारी नारद वर्धमान नगर पहुँचा" किया है। किन्तु, प्रसंग तथा मूलस्रोतों के अवलोकन से 'वद्धावणहँ' का अर्थ 'वर्धापन हेतु' होना चाहिए। इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ - 'तब उस वचन को सुनकर कलहकारक नारद वर्धापन हेतु दौड़ पड़े' प्रासंगिक होगा।
2. णन्दणु ताहें दोणु उप्पज्जइ
केक्कय तणय काइँ, वणिज्जइ ॥ 21. 2.8