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अपभ्रंश भारती-8
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रइध
हरिवंश पुराण
- स्वयंभू और त्रिभुवन
- श्रुतिकीर्ति यद्यपि उपर्युक्त सूची अपभ्रंश साहित्य को सम्पूर्ण नहीं दर्शाती तथापि इनसे इस साहित्य की सामान्य स्थिति का आभास लगाया जा सकता है। संधि, कुलक, चउपई, आराधना, रास, चॉसर, फाग, स्तुति, स्तोत्र, कथा, चरित, पुराण आदि विविध विधाओं में मानव जीवन और जगत् की अनेक भावनाओं और विचारों को सफलतापूर्वक इस साहित्य ने उकेरा है। इस दृष्टि से कुछेक उदाहरण यहाँ दिये जा सकते हैं -
1. सामाण भास छुडु मा विहउड ।
छुडु आगम - जुति किं पिघडउ ॥ छुडु होंति सुहासिय - वयणाइ । गामेल्ल - भास परिहरणाई ॥ तपणु वियक्तिर तिमिर - धम्मिलु परिल्ह सिर । तारय-वसण कलमलंत तरू सिहर पक्खिय ॥ परिसंदिर कुसुम-महु-विंदु मिसिणए पइं वडुक्खिय ॥ श्रावणि सरवणि कंडुय मेहु गज्जइ, विरि हिनि झिजइ देहु । विजु झबक्कइ रक्खसि जेवं नेमिहि विणु सहि सहियइ के वं । भ्राद्रवि भरिया सरपिक्खेवि
सकरुण रोअइ राजल देवि ॥ 4. कवि वेस चिंतइ गए - सुण्णा ।
ये थण एयहो णहहिं ण मिण्णा । कावि वेस चिंतइ किं वड्ढिय । णीलालय एएण न किड्डिय ॥ मणु मिलियउ परमेसरहो, परमेसर जि मणस्स । विण्णि वि समरसि हुइ रहिय, पुंज चडावउँ कस्स ॥ जो परमप्पा सो जि हउँ, जो हउँ सो परमप्प ॥
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1. अपभ्रंष्टं तृतीयं च तदनन्तंनराधिप, खण्ड 3, अध्याय 3; दे. किं. चि अवठभंस- क आ दा ... अल्फेड मास्टर - BSOASXIII.2 में उद्धृत।
मंगलकलश, 394, सर्वोदय नगर आगरा रोड, अलीगढ़ - 202001