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________________ अपभ्रंश भारती - 8 वह जल हस्तियों के कुम्भस्थलों द्वारा कलश धारण किये था और तृष्णातुर जीवों को सुख उत्पन्न करता था। वह उच्च- दण्ड कमलों के द्वारा उन्नति वहन कर रहा था और उछलती मछलियों द्वारा अपना उछलता मन प्रकट कह रहा था। फेन पिण्डरूपी दाँतों को प्रकट करता हुआ हँस रहा था एवं अति निर्मल व प्रचुर गुणोंसहित चल रहा था। फूले हुए कमलों द्वारा वह अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रहा था और विविध विहंगों के रूप में नाच रहा था । भ्रमरावली की गुंजार द्वारा वह गा रहा था और पवन से प्रेरित जल के द्वारा दौड़ रहा था। इस प्रकार एक सुहावने व नयन-इष्ट सज्जन के समान उस जल से भरे हुए सरोवर को उन्होंने देखा । - 55 धार्मिक आवरण में आबद्ध दिव्य-दृष्टि धाहिल के 'पउमश्रीचरिउ' में पद्मश्री और समुद्रदत्त के पूर्वजन्मों तथा उन दोनों की प्रेमकहानी एवम् प्रणय-प्रसंगों का वर्णन है । कवि ने अपने इस खण्डकाव्य में प्रकृति-वर्णन के संश्लिष्टात्मक, उपदेशात्मक, नायक-नायिका की पृष्ठभूमि के रूप में और प्रकृति के बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव का भी अंकन किया है। प्रमाण-स्वरूप सूर्योदयवर्णन के इस उदाहरण में उपदेशात्मक प्रकृति-चित्रण के दर्शन होते हैं परिगलय रयणि उग्गमिउ भाणु उज्जोइउ मज्झिम भुयण भाणु विच्छाय कंति ससि अत्थमेइ सकलंकह किं थिरु उदउ होइ । मउलंति कुमुय महुयर मुयंति थिर नेह मलिण किं कह वि हुंति रात बीत गई सूर्य उदित हुआ। मंद कान्तिवाला चन्द्रमा अस्त हो रहा । कलंकित का उदय क्या स्थिर रह सकता है? कुमुद मुकुलित हो रहे हैं, मधुकर उन्हें छोड़ उड़ रहे हैं, क्या मलिन-काले कहीं स्थिर प्रेमी होते हैं । ‘संदेश रासक' अद्दहमाण द्वारा लिखित एक लौकिक खण्डकाव्य है । " भारतीय साहित्य में, विरहिणी नायिका का किसी अन्य के द्वारा प्रवासी प्रिय के पास सन्देश - प्रेषण एक ऐसी महत्त्वपूर्ण और व्यापक काव्य रूढ़ि रही है कि इसका उपयोग प्रेमकाव्य के रचयिताओं ने जी खोलकर किया है। यही नहीं, कल्पना- प्रवण भारतीय कवियों ने सन्देश ले जाने के लिए हंस, शुक, भ्रमर, मेघ आदि मानवेतर जीवों और अचेतन वस्तुओं को भी इस कार्य में नियोजित किया है ? प्रेम की भूमिका पर जड़-चेतन के एकत्व का यह विधान भारतीय कवि हृदय की महत्त्वपूर्ण विशेषता है ।' इस खण्डकाव्य में प्रकृति-वर्णन का प्रमुख उद्देश्य नायिका की दारुण विरहवेदना की अभिव्यंजना है। सभी ऋतुएँ उसके लिए अपार कष्टदायक और विरहोद्दीपक बन गयी हैं। शरद ऋतु - वर्णन की निम्न पंक्तियाँ देखिए - 19 झिज्झउँ पहिय जलिहि झिज्झतिहि, खिज्जउँ खज्जोयहिँ खज्जंतिहिं । सारस सरसु रसहिं किं सारसि ! मह चिर जिण दुक्खु किं सारसि । 10 पथिक! जल के छीजने (कम होने) के साथ-साथ मैं भी छीजने लगी। खद्योतों के सारस ! मेरे चमकने के साथ मैं खीजने ( खिन्न होने ) लगी । सारस सरस शब्द करते हैं। चिरजीर्ण दुःख का स्मरण क्यों कराती हो ?
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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