________________
56
अपभ्रंश भारती - 8
जल के छीजने के साथ छीजनेवाली नायिका का चिरजीर्ण दुख बसन्त में भी कम नहीं होता -
गयउ गम्हु अइ दुसह वरिसु उव्विन्नियइ, सरउ गयउ अइकट्ठि हिमंतु पवन्नियइ । सिसिर फरसु वुल्लीणुकहव रोवंतियइ,
दुक्करु गमियइ एहु णाहु सुमरंतियइ ।' - दुःसह ग्रीष्म गया, उद्विग्नतापूर्वक वर्षा बीती, अति कष्ट से शरद बीता। हेमन्त आया, परुष शिशिर रोती हुई मैंने किसी प्रकार बिताया। नाथ का स्मरण करती हुई मेरे लिए इस बसन्त का बिताना दुष्कर है।
विद्यापति की 'कीर्तिलता' में राजा कीर्तिसिंह का यशगान है। इसमें परम्परा पालन के लिए कुछ स्थानों पर प्रकृति-वर्णन हुआ है, किन्तु रूप-वर्णन में प्राकृतिक सौंदर्य की छटा अपेक्षाकृत अधिक सौष्ठवपूर्ण है। केशों में बंधे हुए पुष्यों की अंधकार की हंसी के रूप में परिकल्पना तथा भृकुटि-भंगिमा की काजल की नदी के बीच लहरों में उछलती हुई मछलियों के रूप में की गयी उत्प्रेक्षा पर्याप्त प्रभावाभिव्यंजक है -
तान्हि केस कुसुम वस, जनि मान्य जनक लज्जावलम्बित । मुखचन्द्र चन्द्रिका करी अधोगति देखि अंधकार हँस ॥ नयनांचल संचारे भ्रूलता भङ्ग ।
जनि कजल कल्लोलिनी करी वीचिविवर्त बड़ बड़ी शफरी तरंग ॥2 - उनके केशों में बँधे पुष्प ऐसे लगते थे मानो शिष्टजनों के लज्जा से झुके हुए मुखचन्द्र की चन्द्रिका की अधोगति देखकर अंधकार हँस रहा हो। पलकों (नयनांजल) के संचार से भृकुटी की भंगिमा ऐसी प्रतीत होती थी मानो काजल की नदी के बीच भँवरयुक्त लहरों में उछलती हुई बड़ी-बड़ी शफरी मछलियाँ हों।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपभ्रंश के खण्डकाव्यों में प्रकृति-वर्णन परम्परागत रूप में विषय की आवश्यकतानुसार ही परिलक्षित होता है। 'संदेश रासक' में कवि को ऋतु-वर्णन के अन्तर्गत प्रकृति-वर्णन का पर्याप्त अवसर भी मिला है। फिर भी काव्य-सौंदर्य एवम् वस्तुवर्णन की दृष्टि से अपभ्रंशकालीन कवियों के ये वर्णन यथास्थान अपनी सार्थकता सिद्ध करने में समर्थ हैं।
1. डॉ. रामगोपाल शर्मा 'दिनेश', अपभ्रंश भाषा का व्याकरण और साहित्य, पृ. 105 । 2. पुष्पदन्त, णायकुमारचरिउ, 8.9.1-4। 3. पुष्पदन्त, जसहरचरिउ, 3.1 । 4. वही, 2.2। 5. वीर कवि, जंबुसामिचरिउ, 4.16।