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________________ अपभ्रंश भारती - 8 और आम, जंबीर (नीबू), जंबू तथा उत्तम कदम्ब थे। कोमल कनेर, करमर, करीर (करील), राजन, नाग, नारंगी व न्यग्रोध वृक्षों से नीला अंबर (हरित) हो रहा था । कुसुमरज के प्रकर (समूह) से वहाँ का भूमिभाग पिंगलवर्ण हो गया था । शुकों के तीखे नख व चंचुओं से वहाँ के फल खण्डित थे। घूमते हुए भ्रमरकुलों से पंकज-सरोवर आच्छादित था और मत्त कलकंठियों के मधुर कंठ से स्वर छूट रहा था । रतिपति की आज्ञा से वृक्ष-वृक्ष में कल्पवृक्ष की शोभा से भास्वर माधव श्री बसन्त - शोभा अवतीर्ण हुई । 54 नयनंदीकृत‘सुदंसणचरिउ' में वणिक-पुत्र सुदर्शन के जन्म-वृतान्त, उसका अप्रतिम सौंदर्य, चरित्रगत दृढ़ता और आचार-व्यवहार आदि का उल्लेख मिलता है । खण्डकाव्य में प्रयुक्त उपदेशों से कवि की धार्मिक प्रवृत्ति का भी परिचय मिलता है। प्राकृतिक चित्रण की दृष्टि से कवि ने स्त्री- पुरुष, उपवनों, राजहंसों, नदियों, सूर्यास्त, प्रभात तथा बसन्त ऋतु इत्यादि के सुन्दर एवम् अलंकृत चित्रों को अपने खण्डकाव्य का मुख्य विषय बनाया है, जिसका स्पष्ट प्रमाण यह प्रभातवर्णन है -- ताजग सरवरम्मि णिसि कुमइणि, उड्डु पफुल्ल कुमुय उब्भासिणि । उम्मूलिय पच्चूस मयंगें, गमु सहिउ ससि हंस विहंगें । वहल तमंधयार वारण-अरि, दीसइ उयय सिहरे रविकेसरि । पुव्व दिसावहूय अरुण छवि, लीला कमलु व उब्भासइ रवि । सोहम्माइकप्पफल जोयहो, कोसुम गुंछु व गयणा सोयहो । दिण सिरि विदुमविल्लिहेकंडुव, णहसिरि घुसिणललामय विदुव ।" तभी जगरूपी सरोवर से तारारूपी प्रफुल्ल कुमुदों से उद्भासित रात्रिरूपी कुमुदिनी को प्रत्यूषरूपी मातंग ने उन्मूलित कर डाला। शशिरूपी हंस पक्षी ने गमन की तैयारी की। सघनतम अंधकाररूपी गज का वैरी रविरूपी सिंह उदयाचल के शिखर पर दिखाई दिया। पूर्व दिशारूपी वधू के लीलाकमल के सदृश अरुणवर्ण रवि उद्भासित (उदित) हुआ। जैसे मानो वह योग का सौधर्मादि स्वर्गरूप फल हो, गगनरूपी अशोक का पुष्पगुच्छ हो, दिनश्रीरूपी प्रवाल की बेल का कंद हो तथा नभश्री के भाल का केशरमय ललामबिन्दु हो । 'करकंडचरिउ ' मुनि कनकामर का, महाराज करकंड के जन्म से जुड़ी अनेक अलौकिक एवम् चमत्कारपूर्ण घटनाओं और उनकी चरित्रगत विशेषताओं पर आधारित एक धार्मिक खण्डकाव्य है। इस खण्डकाव्य के प्राकृतिक सौंदर्य में कोई विशेष चमत्कार या नयापन न होते हुए भी कवि ने प्रकृति की जड़ता या स्पन्दनहीनता को अस्वीकार करते हुए उसे हँसते-गाते, उछलते-कूदते तथा नाचते हुए महसूस किया है। जैसा कि उसके निम्नलिखित सरोवर - वर्णन से स्पष्ट हो जाता है जलकुंभ कुंभ कुंभई धरंतु तण्हाउर जीवहं सुहु करंतु । उदंड णलिणि उणणइ वहंतु उच्छलिय मीणहिं मणु कहंतु । डिंडीर पिंड रयणहि हसंतु अइणिम्मल पउर गुणेहिंजंतु । पच्छण्णउ वियसियपंकएहिं णच्वंतर विविह विहंगएहिं । गायंत भमरावलि खेण धावंतउ पवणाहय जलेण । णं सुयणु सुहावउ णयणइट्ठ जलभरिउ सरोवरु तेहिं दिट्ठ ।
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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