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________________ अपभ्रंश भारती - 8 तारावलि कुसुमहिं परियरिय, संपुण्ण चंद फल भरणविय । णं रत्त गोवि छाइय हरिणा, सा खद्धी बहल तिमिरकरिणा । णं चक्कु तमोह विहंडणउ, णं सुरकरि सिय मुह मंडणउ । णं कित्ति दाविउ यियमुहु, णं अमय भवणु जण दिण्ण सुहु । णं जसु पुंजिउ परमेसर हो, णं पडुर छत्तु सुरेसर हो । णं रयणी वहुहि णिलाउ तिलउ 14 - • जहाँ अस्ताचल पर स्थित मित्र (सूर्य) अनुरक्त हुआ (लाल हुआ) वहाँ, बाप रे, दिशारूप - 53 नारी भी रक्त (लालानुरागयुक्त) हो उठी। सूर्य भी कहाँ तक तपेगा ? दिनके चार पहरों पश्चात् उसका भी अस्त होना निश्चित है, जिसप्रकार रण में वीरता दिखानेवाला सूर भी अनेक प्रहारों से आहत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। सूर्य उदित हुआ और फिर मानो अधोगति को प्राप्त हुआ, जैसे कहीं बोया हुआ बीज लाल अंकुर के रूप में प्रकट हुआ हो। उसके द्वारा वहाँ सन्ध्यारूपी लता निकलकर समस्त जगतरूपी मण्डप पर छा गई। वह तारावलीरूपी कुसुमों से युक्त हो उठी तथा पूर्णचन्द्ररूपी फल के भार से झुक गई। जैसे मानो अनुरक्त हुई गोपी कृष्ण के द्वारा आच्छादित हुई हो, ऐसी ही सन्ध्याकालीन रक्तिमा से लाल हुई भूमि पहले हरे तृण आच्छादित हुई और उस तृण को सघन अन्धकाररूपी हाथी ने चर लिया। अब चन्द्रमा का उदय हुआ। मानो वह अन्धकार - समूह को खण्डित करनेवाला चक्र हो, मानो देवों के कृष्णमुख का मण्डन हो, मानो कीर्तिदेवी ने अपना मुख दिखलाया हो, मानो लोगों को सुखदाई अमृतकुण्ड प्रकट हुआ हो, मानो परमेश्वर का यश: पुंज हो, मानो इन्द्र का श्वेतछत्र हो, मानो रात्रिरूपी वधू के मस्तिष्क का तिलक हो । वीर कवि द्वारा रचित 'जंबुसामिचरिउ' जंबूस्वामी, उनके बड़े भाई और उनकी पत्नियों के पूर्व जन्मों की कथा से सुसज्जित खण्डकाव्य है। इसमें भी सूर्योदय, सूर्यास्त, ग्राम, नगर, अरण्य, उद्यान तथा बसन्तादि के वर्णन के द्वारा प्रकृति के उद्दीपक रूप का चित्रण हुआ है। उदाहरण के लिए राजा के भ्रमण के लिए जाते समय पुष्प - मकरन्द से सुरभित एवम् पराग-रज से रंजित उद्यान में भौंरों का गूँजना, वहाँ के शान्त, शीतल तथा मनमोहक वातावरण से युक्त प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत दृश्य दर्शनीय है। मंद मंदार मयरंद नन्दनं वणं, कुंदकर वंद वयकुंद चन्दन घणं । तरल दल ताल चल चवलि कयलीसुहं, दक्ख पउमक्ख रुद्दक्खखोणीरुहं । विल्ल वेइल्ल विरिहिल्ल सल्लइवरं, अंब जंबीर जंबू कयंबू वरं । करुण कणवीर करमरं करीरायणं, नाग, नारंग नागोह नीलंवरं । कुसुम रय पयर पिंजरिय धरणीयलं, तिक्ख नहु चंबु कणयल्ल खंडियफलं । भमिय भमर उल संछड्य पंकयसरं, मत्त कलयंठि कलयट्ठ मेल्लिय सरं । रुक्ख रुक्खमि कप्पयरु सिय भासिरि, रइ वराणत्त अवयण्ण माहवसिरि । उस नन्दनवन में मंदार की मंद मकरंद फैल रही थी और वह कुंद, करवंद (करौंदा), मुचकुंद तथा चंदन वृक्षों से सघन था । वहाँ तरल पत्तोंवाले ताल, चंचल लवली और सुन्दर कदली तथा द्राक्षा, पद्माक्ष एवं रुद्राक्ष के वृक्ष थे । बेल, विचिकिल्ल, चिरिहिल्ल तथा सुन्दर सल्लकी
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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