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अपभ्रंश भारती - 1
मन के संकल्प मिट जाते हैं, इन्द्रियों विषयों से उपरत हो जाती हैं और आत्म ध्यान से योगी अथवा स्वरूप जस लेता है।
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5. पाँचवाँ साम्य है - गुरु माहात्म्य या महत्त्व का । आगम-सम्मत धारा चूँकि साधन को सर्वाधिक महत्त्व देती है अतः निर्देशक के अभाव में यह कार्यान्वित हो नहीं सकती। संतों ने 'गुरु' को परमात्मा का शरीरी रूप ही कहा है। जैन मुनियों में भी गुरु महिमा का स्वर उतना ही उदग्र है। मुनि रामसिंह ने पाहुडदोहा में गुरु की वंदना की है और कहा है.
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गुरु दिणयरु गुरु हिमकिरणु गुरु दीवउ गुरु देउ । अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥ 2 ॥
अर्थात् गुरु दिनकर, हिमकर, दीप तथा देव सब कुछ है। कारण यही तो आत्मा और अनात्मा को भेद स्पष्ट करता । यह सद्गुरु ही है जिसके प्रसाद से केवलज्ञान का स्फुरण होता है । उसी की प्रसन्नता का यह परिणाम है कि साधक मुक्तिरूपी स्त्री के घर निवास करता है ।
केवलणाणावि उपज्जइ सद्गुरु वचन पसावु ।
निष्कर्ष यह कि अपभ्रंश-बद्ध जैन काव्यों में उस स्वर का स्पष्ट ही पूर्वाभास उपस्थित है जो संतों में लासित होता है।
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