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अपभ्रंश भारती - 8
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इसी बात को शब्दान्तर से कुंदकुंदाचार्य ने 'भावपाहुड' में भी कहा है -
भावो हि पढमलिंग न दव्वलिंग च जाण परमत्थं ।
भावो कारणवूदो गुणदोसाणं जिणाविति ॥2॥ 3. अन्तर्याग पर मल ही नहीं, उससे विच्छिन्न मूत्र वहिर्याग, वाह्यलिंग अथवा वाह्याचार का उसी आवेश और विद्रोह की मुद्रा में जैन मुनियों ने खण्डन भी किया है। आनन्दतिलक ने स्पष्ट ही कहा है कि कुछ लोग या तो बालों को नुचवाते हैं अथवा व्यर्थ में जटा-वहन करते हैं, परन्तु इन सबका फल जो आत्मबिन्दु का बोध है, उससे अपने को वंचित रखते हैं -
केइ केस लुचावहिं, केइ सिर जटभारु ।
अप्पबिंदु ण जाणहिं, आणंदा! किम जावहिं भवपारु ॥१॥ मुनि योगीन्दु ने भी कहा है कि जिन लोगों ने जिनवरों का बाहरी वेष-मात्र अपना रखा है, भस्म से केश का लुंचन किया है किन्तु अपरिग्रही नहीं हुआ उसने दूसरों को नहीं, अपने को ठगा है। इसी प्रकार इन मुनियों ने तीर्थ-भ्रमण तथा देवालय-गमन का भी उग्र स्वर में विरोध किया है। मुनि योगीन्दु ने तीर्थ-भ्रमण के विषय में कहा है -
तित्थई तित्थु भमंताहं मूढ़हं मोरूव ण होइ।
णाण विवजिउजेण जिम मुणिवरु होइण सोइ ॥ 216॥ मुनि रामसिंह के देवल-गमन तथा मूर्ति-पूजा के विपक्ष में उद्गार देखें -
पत्तिय पाणिउ दम्भ तिल सव्वइं जगणि सवण्णु । जं पुण मोक्खहं जाइवउ तं कारणु कुइ अण्णु ॥ 159॥ पत्तिय तोडि म जोइया फलहिं ज इत्थु म वहि । जसु कारणि तोडेहि तुहुँ सोउ एत्थु चडाहि ॥ 160॥ देवलि पाहणु तिथि जलु पुत्थई सव्वई कव्वु ।
वत्थु जु दीसइ कुसुमियउ इधण होसइ सव्वु ॥ 161॥ --- इत्यादि इन पंक्तियों में स्पष्ट ही कहा गया है कि देवालय-गमन या तीर्थ-भ्रमण से कुछ नहीं होने का जब तक मन में काषाय शेष है। मनोगत काषाय का संचरण और निर्जरण प्रमुख वस्तु है।
4. आगमिक परम्परा से प्रभावित इन जैन मुनियों की संतों, सिद्धों और रहस्यावादी नाथों से चौथी समानता यह है कि वे भी बहिर्मुखी साधना से हटकर शरीर के भीतर की साधना पर बल देते हैं। देव संताचार्य ने 'तत्त्वसार' में स्पष्ट कहा है -
थक्के मण संकप्पे रुद्दे अरुवाण विसयवावारे ।
पगटइ वंभसरूव अप्पा झाणेण जोईणं ॥ - आत्मोलब्धि करनी है तो मनोदर्पणगत काषाय मल का अपवारण आवश्यक है। रत्नत्रय ही मोक्ष है - किन्तु वह पोथियों से नहीं, स्वसंवेदन से ही संभव है। स्वसंवेदन-अपने से ही अपनी को जानना है। इसीलिए उक्त दोहे में कहा गया है कि यह स्व-संवेदन ही है जिसके द्वारा