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अपभ्रंश भारती - 8
नवम्बर, 1996
अपभ्रंश खण्डकाव्यों में प्रकृति-वर्णन
- कु. रेनू उपाध्याय
___ अपभ्रंश काल के महाकाव्यों में जहाँ प्रकृति-वर्णन का विस्तृत रूप दृष्टिगोचर होता है, वहीं खण्डकाव्यों में ऐसे वर्णन संक्षिप्त रूप में मिलते हैं। इन्हें दृश्यों की स्थानगत विशेषता या लोकल कलर भी माना जा सकता है। चारों ओर विस्तृत प्रकृति के साथ हृदय का सामंजस्य करना आसान नहीं है। कल्पना के आरोप की परम्परा कालिदास के युग से अग्रसर होकर अपभ्रंश काल तक काफी रूढ़ हो चुकी थी। ___ अपभ्रंश के प्रमुख कवि पुष्पदन्त का 'णायकुमारचरिउ' विशुद्ध धार्मिक-भावनाप्रधान खण्डकाव्यों में से एक है। इसमें मगध देश के राजा जयंधर के गृहस्थ जीवन तथा उनके पुत्र नागकुमार के जीवन-चरित के माध्यम से उसके अप्रतिम सौंदर्य, शौर्य, राज्य-संचालन तथा धार्मिक आस्थाओं का परिचय मिलता है। डॉ. रामगोपाल शर्मा के मतानुसार - "जीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इस काव्य में भी अंकित किए गये हैं।" प्रमाण के लिए निम्न पंक्तियाँ देखिए -
सप्पुरिसु व थिर मूलाहिठाणु सप्पुरिसु व अकुसुमफल णिहाणु । सप्पुरिसु व कइ सेविजमाणु सप्पुरिसु व दियवर दिण्णदाणु ॥ सप्पुरिसु व परसंतावहारि सप्पुरिसु व पत्तुद्धरण कारि । सप्पुरिसुव तहिं वडविडवि अस्थि जहिं करइ गंड कंडुयणु हत्थि ॥