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________________ अपभ्रंश भारती -8 नवम्बर, 1996 27 अपभ्रंश साहित्य में वस्तु-वर्णन - डॉ. इन्द्र बहादुर सिंह पतंजलि के समय तक उन सब शब्दों को अपभ्रंश समझा जाता था जो संस्कृत भाषा से विकृत होते थे। भामह' और दण्डी ने अपभ्रंश को काव्योपयोगी भाषा और काव्य का एक विशेष रूप माना है। दण्डी ने समस्त वाङ्मय को चार भागों में विभक्त किया है - तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रशंश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥' यहाँ तक आते-आते अपभ्रंश वाङ्मय के एक भेद के रूप में स्वीकृत हो गया था। लेकिन आभीरों के साथ उसका संबंध बना हुआ था। इसी से अपभ्रंश भाषा 'आभीरोक्ति' या 'आभीरादिगी'कही गयी है। आभीरोक्ति होते हए भी दण्डी के समय तक इसमें काव्यहोने लगी थी। इसी प्रकार 'कुवलयमाला कथा' के लेखक उद्योतन सूरि भी अपभ्रंश-काव्य की प्रशंसा करते हैं। 'काव्यालंकार' में रुद्रट अपभ्रंश को अन्य साहित्यिक प्राकृतों के समान गौरव देते हुए देश-भेद के कारण विविध अपभ्रंश भाषाओं का उल्लेख करते हैं। अपने 'महापुराण' में पुष्पदन्त ने संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंश का भी स्पष्ट उल्लेख किया है। उस समय राजकुमारियों को संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंश का भी ज्ञान कराया जाता था। राजशेखर ने अपभ्रंश भाषा को पृथक साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकार किया है - शब्दार्थों ते शरीरं, संस्कृतं मुखं, प्राकृतं बाहुः । जघनमपभ्रंशः, पैशाचं पादौ, उरो मिश्रम् ॥
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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