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अपभ्रंश भारती
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नवम्बर, 1996
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अपभ्रंश का लाड़ला छन्द दोहा और उसकी काव्य-यात्रा
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डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी'
अपभ्रंश-साहित्य विविध काव्य-रूपों तथा मात्रा - छन्दों का प्रेरक और जन्मदाता रहा है। इसके प्रणेता जैन-अजैन कवियों और मुनियों ने लोक-मानस से निःसृत न जाने कितने लोकगीतों की धुनों, लयों और तुकों के आधार पर अजाने-अनगिनती मात्रा - छन्दों को नाम दिया और इस प्रकार एक नूतन छन्द-शास्त्र ही गढ़ दिया। परवर्ती हिन्दी-साहित्य इसके लिए इसका चिरऋणी रहेगा। छन्द-शास्त्र के साथ लोक-संगीत का यह नूतन परिपाक इनकी नित-नवीन मौलिक उद्भावना थी। इन मात्रा - छन्दों में इस काल में दोहा सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ और अपभ्रंश का लाड़ला छन्द बन गया। यह भी लोक - छन्द ही है; जिस प्रकार 'गाहा' या 'गाथा' प्राकृत का लोकछंद था और 'श्लोक' लौकिक संस्कृत का । इसके लिए छन्द-ग्रन्थों में अनेक नाम प्रयुक्त हुए हैं; यथा, 'दुवहअ' (स्वयंभू छन्दस्, वृत्तजाति - समुच्चय), 'दोहक' (छन्दोनुशासनम्), 'दोधक' (प्राकृत-पैंगलम् ) तथा 'दोहा' (छन्दः कोश, छन्द प्रभाकर) । इसी प्रकार परवर्ती हिन्दी - साहित्य में इसके लिए अनेक नामों का संकेत मिलता है; यथा, 'पृथ्वीराजरासो' में 'दोहा', 'दुहा' तथा 'दूहा'। कबीर आदि संतों की साखियाँ तथा नानक के 'सलोकु' वस्तुतः दोहा के ही नामान्तर हैं । तुलसीदासजी ने 'साखी, सबदी, दोहरा' कहकर इसके 'दोहरा' नाम का संकेत किया है। इस प्रकार यह 'दोहा' छन्द अपभ्रंश और परवर्ती हिन्दी-साहित्य में अत्यधिक प्रचलित हुआ ।
जहाँ इस दोहा छन्द ने अपभ्रंश के जैन-कवियों की नीतिपरक तथा आध्यात्मिक-वाणी को संगीत की माधुरी से अनुप्राणितकर लोक- हृदय की वस्तु बनाया, वहाँ सिद्धों ने भी अपने