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________________ 20 घत्ता - दिणिंदु हुउ तेयमंदु मंदु | सोवयविचित्तु । वहाँ ते । तो वहहिँ राउ । जाणिवि भवित्ति । एतहिँ दिदुि णं अत्थवंतु णिड्डहणहेउ माणिणि विताउ झ णहतरुवरासु काण खुडि जणणिय उ हसिरितियाहे रविकणयकुंभु फलु ाइँ तासु । अपक्कु पडिउ | कंदप्पराउ | पहावंतिया । ल्हसियड सुसुंभु । अपभ्रंश भारती पहराहउ आरत्तउ संतावजुओ रवि सायरे जाम णिमज्जइ । पेच्छों कम्महों तणिय गइ सो उद्धवइ णिसिरक्खिए ताम गिलिज्जइ । - 8 सुदंसणचरिउ, 5.7 इतने में ही दिनेन्द्र (सूर्य) मंद-तेज हो गया व अस्त होते हुए ऐसा विचित्र दिखाई दिया जैसे अर्थवान् (धनी) शोक - चिन्ताओं से विचित्त (उदास) हो जाता है। (उस समय मानो डूबते सूर्य से) निर्दहन हेतुक (जलानेवाली) अग्नि में तेज आ गया; तथा मानिनी स्त्रियों ने भी राग धारण किया। मानों (डूबते सूर्य ने) भवितव्यता को जानकर नभरूपी तरुवर का फल झटपट दे डाला हो, जो यथाकाल अतिपक्व होकर टूट गया और गिर पड़ा एवं कामराग के रूप लोगों में अनुराग उत्पन्न करने लगा। अथवा मानों नभश्रीरूपी स्त्री के स्नान करते समय उसका रविरूपी सुन्दर कनक - कुंभ खिसक पड़ा हो। फिर प्रहररूपी प्रहारों से आहत और आरक्त (लाल व लोहूलुहान) हुआ वह संतापयुक्त रवि सागर में निमग्न हो गया। (देखिये तो इस कर्म की गति को) उस उर्ध्वलोक के पति को भी निशा राक्षसी ने निगल लिया। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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