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________________ अपभ्रंश भारती - 8 जोइन्दु आदि कवियों ने तो समाज को इस प्रकार छुआ है जैसे वह आज भी हमें सजग कर रहे हों, हमसे जुड़ रहे हों, हमारे लिए प्रासंगिक बन रहे हों, वर्णभेद की विषय समस्या का समाधान आज भी नहीं निकल पाया है। यह कलंक अभी तक नहीं धुला है। जोइन्दु जैसे आज भी समाज को चेतावनी दे रहे हों कि मैं गोरा हूँ, मैं साँवला हूँ, मैं विभिन्न वर्ण का हूँ, मैं तन्वांग हूँ, मैं स्थूल हूँ, हे जीव! ऐसा तो मूर्ख ही मानते हैं - हउँ गोरउ हउँ सामलउ, हउँ जि विभिण्णउ वण्णु । हउँ तणु-अंगउ थूलु हउँ, एहउँ मूढउ मण्णु ॥80॥ इसी प्रकार के जाति-पाँति के भेद-भाव को मूर्खतापूर्ण मानते हैं। यह भी सामाजिक अभिशाप ही है। इसका भी निराकरण हुए बिना समाज गतिशील नहीं बन सकता। यह स्वर कभी पुराना नहीं पड़ा। मध्यकालीन कवियों के लिए ही प्रेरणा का स्रोत बना रहा। जोइन्दु के शब्दों में - 'मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, वैश्य हूँ, क्षत्रिय हूँ, शेष (शूद्र) हूँ, पुरुष, नपुंसक या स्त्री हूँ, ऐसा मूर्ख विशेष ही मानता है। तात्पर्य यह कि आत्मा में वर्णभेद या लिंगभेद नहीं माना जाना चाहिये - हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ, खत्तिउ हउँ सेसु । पुरिसु णउंसर इत्थि हउँ, मण्णइ मूद् विसेसु ॥ 81॥ प्रेम की संस्कृति का पाठ अपभ्रंश के कवियों की अद्भुत देन है। कबीर का 'पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई। ढाई आखर प्रेम का पढ़य सो पंडित होई ॥ इसको रामसिंह ने बहुत पहले संकेतित किया था। अपभ्रंश का समाजशास्त्र इसकी व्यापकता में विश्वास करता है। इसके बिना सब व्यर्थ है - हे प्राणी बहुत पढ़ा जिससे तालू सूख गया पर तू मूढ़ ही बना रहा। उस एक ही अक्षर को पढ़ो जिससे शिवपुरी को गमन होता है। कल्याण की भावनाएँ मिलती हैं - बहुयइं पढियइ मूढ पर, तालू सुक्इ जेण । एक्कु जि अक्खरु तं पढउ सिवपुरी गम्मइ जेण ॥ सिद्ध-नाथ अपभ्रंश कवियोंका साहित्यिक समाजशास्त्र तो सीधे समाज पर कशाघात करता है। ये पूरी तरह प्रतिपक्ष के कवि हैं। इन्हें न तो ढोंग पसन्द है न कृत्रिमता। वे संकीर्णता में बँधे जीवन को सहज जीवन का रूप देना चाहते थे और इसके लिए समाज के ठेकेदारों की कितनी ही रूढ़ियों को वह तोड़-फेंकना चाहते थे। वस्तुतः ये सिद्ध पुरानी रूढ़ियों, पुराने विचारों और पाखंडों के बड़े विरोधी थे। वे आशावाद के कवि थे और समाज को सहजता की ओर ले जाना चाहते थे। नाथों में योग और संयम का बड़ा मान था। गुरु-महिमा, सतसंगति का बड़ा मान था - गुरु उवएसे अमिअ-रसु धाव ण पीअउ जेहि । बहु-सत्थत्थ-मरुत्थलहिं, तिसिए मरिअउ ते हि ॥
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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