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अपभ्रंश भारती
जलु गलइ, झलझलइ । दरि भरइ, सरि सरइ । तडयss, तडि पडइ । गिरि फुडइ, सिहि ण्डइ । यरु चलइ, तरु घुलइ । जलु थलु वि गोउलु वि । णिरु रसिउ, भय तसिउ । थरहरइ, किरमरइ । जाव ताव, थिर भाव । धीरेण वीरेण । सर-लच्छि - जयलच्छि-तण्हेण कहणेण । सुर थुइण, भुय जुइण | वित्थरिउ उद्धरिउ । महिहरउ, दिहियरुउ। तय जडिउँ, पायडिउँ । महि-विवरु फणि णियरु । फुफ्फुवड़ विसु मुयइ । परिघुलइ, चलवलइ । तरुणाइँ, इँ द्वाइँ । कायरइँ, हिंसाल - चंडाल - चंडाइँ,
हरिणाइँ ।
वयइँ ।
कंडाइँ ।
तावसइँ, परवसइँ। दरियाइँ
जरियाइँ ।
गो-वद्धण-परेण-गो-गोपि णिभारु व जोइउ । गिरि गोवद्धणउ गोवद्धणेण उच्चाइयउ ॥
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कर्ण की सहस्र- छवि को कौन क्षुब्ध करेगा? तुम्हारे बिना कुबेर को मंजित कौन करेगा? त्रिजगविभूषण शिव किसके वश में होंगे? तुम्हारे बिना यम का विनिवारण कौन करेगा ? ' रोवइ लङ्कनपुर परमेसरि । हा रावण! तिहुयण जण केसरि । up विणु समर तूरु- कह वज्जइ । पइ विणु बालकीता कहो छज्जइ । पइ विणु णवगह एक्कीकरणउ । को परिहेसइ कंठाहरणउ । पइ विणु को विज्जा आराहइ । पइँ विणु चंदहासु को साहइ । को गंधव्व-वापि आडोहइ । कण्णहों छवि सहासु सखोहइ । पइ विणु को कुबेरु मंजेसइ । तिजग- विहुसणु कहो वसे होसइ । पइ विणु को जयु विणिवारेसइ । को कइलासुद्धरणु करेसइ 13
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पुष्पदन्त दूसरे ऐसे कवि हैं जिनके काव्य का सामाजिक फलक विस्तृत और लोक-सापेक्ष है। उन्होंने कृष्ण के नटखटपने के साथ 'कालियादमन', 'गोवर्द्धन-धारण' जैसी पौरुषमयी लीलाओं का भी सजीव चित्रण किया है । इन्द्र के प्रलयंकारी वृष्टि और कृष्ण का ग्वाल-बालों को बचाने का अद्भुत प्रयास गोवर्द्धन धारण, साहित्यिक नादानुरंजितता के साथ'जल पड़ रहा है, झलझला रहा है, गुफाएँ भर रही हैं, नदियाँ बह रही हैं। बिजली तड़क रही है । पर्वत फूट रहे हैं, चोटियाँ नाच रही हैं। हवा चल रही है। तरु डोल रहे हैं । जल-थल गोकुल डूब रहे हैं। लोग भयग्रस्त काँप रहे हैं। जब-तब स्थिर हो जाते हैं। धीर-वीर कृष्ण ढाढ़स बंधाते हैं । आर्त होकर श्रीलक्ष्मी, जयलक्ष्मी, कृष्ण को पुकारते हैं। दोनों भुजा उठाकर देवताओं के घने अंधकार को दूर करने, चंचल पृथ्वी को धारण करने, उद्धार करने की स्तुति करते हैं । पृथ्वी के विवर से फणिधर निकलकर फुफकारते हुए विष छोड़ रहे हैं, तरुण हरिण चंचल हो परिभ्रमित हो रहे हैं । वनचर अपने स्थान के नष्ट हो जाने से कातर हो गये, गिरकर चिल्लाते हैं, वन्यजातिय तथा तापस परवश हो गये हैं। उनका हृदय विदीर्ण हो रहा है, वे जीर्ण दिखाई पड़ रहे हैं। गौवों, गोप-गोपियों और गोवर्द्धन पर पड़े इस भार को देखकर गोवर्द्धनधारी ने गोवर्द्धन पर्वत को ऊँचा किया
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