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अपभ्रंश भारती -8
को किसी भी परिस्थिति में बुरा काम न करने की मंत्रणा देती है। इस दृश्य का एक उदाहरण जहाँ माँ कहती है - "वही शूर और पंडित है जो यौवन विकार में नहीं पड़ता, शृंगार रस के वश में नहीं होता, कामदेव से चंचल नहीं होता, खंडित वचन नहीं बोलता और जो पर स्त्रियों को खंडित नहीं करता, पुरुष वही है जो पुरुषत्व का पालन करता है, दूसरे का धन और दूसरे की स्त्री को ग्रहण नहीं करता। अविनाशित धर्म ही उसका धन है, पूर्वकृत शुभकर्म प्राप्त करता है। सुख से पाणिग्रहण-विहित नारी ही उसकी स्त्री होती है। जिससे अपने मन में शंका उत्पन्न हो, उस काम को मरकर भी नहीं करना चाहिए। हे पुत्र ! कुछ और परमार्थ की बातें कहती हूँ, यद्यपि तुम पूर्ण महार्थ (समर्थ, समझदार) हो, तरुणि के तरल लोचनों में मन न लगाना, प्रभु का सम्मान करना, दान के गुण गाना। उस समय मुझे याद करना, (पुनः आकर) एक बार मुझे दर्शन देना। पर धन को पैर की धूलि के समान मानना, दूसरे की स्त्री को माता के समान गिनना।"
जोव्वण-वियार-रस-वस-पसरि सो सूरउ सो पंडियउ । चल मम्मणवयणुल्लाविएहिँ, जो परतियहिँ ण खंडियउ । पुरिसिं पुरिसिव्वउ पालिव्वउ। परधणु परकलत्तु णउ लिब्वउ । तं धणु जं अविणासिय-धमें। लब्भइ पुव्वक्किय सुह-कम्म । तं कलत्तु परिओसिय-गत्तउ। जं सुहि पाणिग्गहणि विढत्तउ । णिय-मणि जेण संक उप्पजइ। मरणंति वि ण कम्मु तं किजइ । अण्णु वि भणमि पुत्र। परमत्थें , जइवि होहि परिपुण्ण महन्थे । तरुणि तरल लोयण मणिं भाविउ। पहु-सम्माण-दाण गुणगाविउ । तहिँ मि कालि अम्हहिँ सुमिरिजहि। एक्कवार महुदंसणु दिजहि ।
पर-धणु पायधूलि भणिजहिँ। परकलत्तु मई समउ गणिजहि ॥2 महाकवि स्वयंभू का यश पउमचरिउ, रिढणेमिचरिउ तथा पंचमिचरिउ के कारण अपभ्रंश साहित्य में अपना शीर्ष स्थान रखता है। वे अपभ्रंश के वाल्मीकि कहे जाते हैं। स्वयंभू की ख्याति समाज, चरित्र और परिवेश के व्यापक फलक के यथार्थपरक चित्रण में है। महाकाव्य की उदात्त भूमिका से ही लग जाता है कि स्वयंभू को साहित्य के समाज शास्त्र के व्यापक पृष्ठ-भूमि का महाकवि माना जा सकता है। प्रारम्भ के आत्म-निवेदन से ही पता चल जाता है कि उनमें अडिग आत्म-विश्वास है। 'पउमचरिउ' में राम का चरित्र प्रधान है परन्तु न तो वह आदर्श चरित्र का काल्पनिक प्रतिमान खड़ा करता है और न अलौकिकता का इन्द्रजाल ही। यथार्थ मानव की अद्भुत सृष्टि है यह, चरित्र जहाँ बिना किसी लाग-लपेट के, दोषों पर बिना पर्दा डाले सम्पूर्ण मानवीय दुर्बलताओं और मानवीय शक्ति का अद्भुत प्रतिनिधि बनकर प्रकट हुआ है। जहाँ उनमें दैवी आपत्तियों-विपत्तियों को झेलने की क्षमता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिहत लक्ष्मण के मरणासन्न शरीर पर बिलख-बिलखकर रोने की मानवीय दुर्बलता भी। लोक संपृक्ति ऐसी कि मन्दोदरी का विलाप राजतंत्रीय और सामंतीय परिवेश के साथ चित्रण में भी मानवीय करुणा उद्वेलित हो उठती है। स्वयंभू के शब्दों में - 'लंकापुरी की परमेश्वरी मंदोदरी विलाप करती हुई कहती है कि हा त्रिभुवन-जन के सिंह रावण! तुम्हारे बिना समर-तूर्य कैसे बजेगा? तुम्हारे बिना बालक्रीड़ा कैसे सुशोभित होगी ? तुम्हारे बिना नवग्रहों का एकीकरण कौन करेगा, कण्ठाभरण कौन पहनायेगा? तुम्हारे बिना विद्या की आराधना कौन करेगा? तुम्हारे बिना चन्द्रहास (तलवार) को कौन साधेगा?