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अपभ्रंश भारती 7
ए पंचिदिय-करहडा जिय मोक्कला म चारि ।
चरिवि असेसु वि विसय वणु पुणु पाडहिँ संसारि ॥ 2.136 ॥
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हे साधक यहाँ प्रत्येक ही वस्तु कृत्रिम ( नाशवान है। यहाँ कोई भी वस्तु अकृत्रिम ( अविनाशी) नहीं है। देखो, इस लोक को छोड़कर जाते हुए (अविनाशी) जीव के साथ (विनाशी) शरीर कभी नहीं गया। इस उदाहरण को (तू) समझ । इन्द्रिय विषयों के सुख दो दिन तक ही रहते हैं। फिर दुःखों का क्रम (प्रारम्भ हो जाता है)। हे भोले जीव ! तू (इन्द्रिय विषयों में ही रमकर) निज के कंधे पर कुल्हाड़ी मत चला । हे अज्ञानी! जो (अवस्थाएं ) सूर्य के उदय होने पर देखी गई हैं वे सूर्य के अस्त होने पर नहीं देखी गई। इस कारण से (तू) धर्म (आध्यात्मिक साधना) कर, धन और यौवन से क्यों संतुष्ट हुआ है ? जीव ! इन स्वच्छन्द पंचेन्द्रियरूपी ऊँटों को मत चरा। क्योंकि (ये) सम्पूर्ण विषयरूपी वन को चरकर (व्यक्ति को ) फिर संसार में पटक देते हैं ।
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इसप्रकार कवि ने संसार की असारता और विषय सुखों की क्षणभंगुरता का दिग्दर्शन कराया है । पर पदार्थों की क्षणिकता का भान होने पर व्यक्ति को इनके वियोग का कष्ट नहीं होता। आसक्ति का परिहार
पर-पदार्थों के प्रति आकर्षण होना ही आसक्ति/रागभाव है। रागभाव से ही कर्म-बन्ध होता है । कर्म-बन्ध ही सांसारिक सुख-दुःख उत्पन्न करते हैं। सांसारिक दुःखों की निवृत्ति के लिए कर्म के बंध को तोड़ना आवश्यक है। यह कर्म-बन्ध आसक्ति का परिहार करने पर ही टूट सकता है अत: जोइन्दु ने (परमात्म प्रकाश में) व्यक्ति को आसक्ति के दुष्परिणामों से अवगत कराया है फिर आसक्ति छोड़ने की प्रेरणा दी है
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रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासहिँ णासंति ।
अलिउल गंधई मच्छ रसि किम अणुराउ करंति ॥ 2.112॥
रूप के कारण पतंगे, शब्द के कारण हरिण, स्पर्श के कारण हाथी, गंध के कारण भौंरे तथा रस के कारण मछलियाँ, ये सब विभिन्न इन्द्रियों में आसक्ति के कारण नष्ट हो जाते हैं। ( फिर भी समझ में नहीं आता कि व्यक्ति पाँचों इन्द्रियों के विषयों में) आसक्ति क्यों करते हैं? आसक्ति में लीन मनुष्य दुःखों को सहता हुआ जीता है आसक्ति अच्छी नहीं होती। इस बात को समझकर आसक्ति छोड़। जहाँ आसक्ति (रूपी अंधकार) बढ़ती है वहाँ स्वबोध (रूपी सूर्य की किरणें ) बिल्कुल ही नहीं होता है। इसी प्रकार कवि ने आसक्ति का प्रभाव दिखलाते हुए स्पष्ट किया है कि जैसे मैले दर्पण में प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता उसी प्रकार आसक्ति में रंगे हुए हृदय में समतावान हुआ दिव्य आत्मा देखा नहीं जाता। यह बात संदेहरहित है
राएं रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु ।
दप्पणि मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु ॥ प. प्र. 1.120॥
इस जगत में जब तक जीव मन में स्थित अणुमात्र भी आसक्ति को नहीं छोड़ता है तब तक वह परमार्थ (परम प्रयोजन/ आत्मा) को समझता हुआ भी ( मानसिक तनाव से छुटकारा नहीं