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भेद - विज्ञान
बहिरात्मा शरीर और उसमें स्थित आत्मा को पृथक्-पृथक् न जानकर एक मानता है, परिणामस्वरूप वह प्रतिसमय परिवर्तित क्षणभंगुर शरीर के ही संवर्धन-पोषण में इतना व्यस्त हो जाता है कि आत्मा की सुध ही नहीं रहती । शरीर के नष्ट होने को वह अपना नाश मानकर दु:खी होता है । ग्रन्थकार का कहना है कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। जीव-आत्मा तथा अजीव अनात्मा-शरीर है। इनमें लक्षण-भेद से पूर्ण भेद है । हे मनुष्य! तू अभेदरूप आत्मा को जान', जो इससे अन्य है, वह अन्य ही है, ऐसा मैं कहता हूँ । आत्मा मनरहित, इन्द्रिय-समूह से रहित, मूर्तिरहित, ज्ञानमय और चेतना स्वरूप है, यह इन्द्रियों का विषय नहीं है। आत्मा आत्मा ही होता है, पर पर ही होता है। आत्मा कभी पर नहीं होता और पर कभी आत्मा नहीं होता। देहों के जन्म, बुढापा और मरण होते हैं । देहों के ही नाना प्रकार के रंग होते हैं । देहों के रोग होते हैं और देहों के ही कई लिंग भी होते हैं। इसप्रकार कवि ने देह और आत्मा की भिन्नता का विश्लेषण करके मनुष्य को निर्भय और निःशंक बनाने का सफल प्रयास किया है देहहँ पेक्खिवि जर मरणु मा भउ जीव करेहि ।
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जो अजरामरु वंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि ॥ 17 ॥
अपभ्रंश भारती 7
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हे जीव ! देहों के बुढ़ापे और मृत्यु को देखकर (तू मन में) डर मत रख। (देह में रहनेवाला) आत्मा बुढ़ापेरहित और मृत्युरहित परम ब्रह्म है, ऐसा तू जान ।
आत्मा और अनात्म पदार्थों में भिन्नता का बोध होने पर प्राणी पर की हानि को अपनी हानि नहीं मानता जिससे इष्ट-वियोग विषयक कष्ट नहीं होता। वह निर्भय बन जाता 1
संसार की असारता
संसार अनित्य, अस्थिर और क्षणभंगुर है । संकल्प (ममत्व) और विकल्प (हर्ष-विषाद) रूप परिणाम (प. प्र. 1.16 टीका) और राग-द्वेष कर्मबंध का कारण है ( प. प्र. 2.79), यह जानता हुआ भी जीव अविद्या के कारण पर-पदार्थों में स्वत्व की भावना कर लेता है । आत्मानुभूति की इच्छा से विमुख होकर आठ मद, आठ मल, छह अनायतन व तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों में मग्न हो जाता है। इससे परम तत्व की उपलब्धि धूमिल हो जाती है। अतः मुमुक्षु साधक का कर्त्तव्य है कि वह संसार की क्षणभंगुरता को समझे/स्वीकार करे।' परमात्मप्रकाश में जोइन्दु ने साधक को अत्यन्त प्रभावोत्पादक रीति से संसार की असारता, इन्द्रिय-विषय-सुखों की क्षणभंगुरता का बोध कराया है
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जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ ।
जीवि जंति कुडि णं गय इहु पडिछंदा जोइ ॥ 2.129॥ विसय सुहइं वे दिवहडा पुणु दुक्खहँ परिवाडि ।
भुल्लउ जीव म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुहाडि ॥ वही 2.138 ॥
जे दिट्ठा सुरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिट्ठ ।
तें कारण वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ॥ 2.132 ॥