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________________ अपभ्रंश भारती 7 बहिरात्मा की धारणा देह आदि परपदार्थों से एकीकरण करनेवाला बहिरात्मा शरीर के वर्ण, आकृति को ही अपनी मानता है। वह सोचता है - मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ, मैं विभिन्न/चितकबरा रंगवाला हूँ, मैं कृश शरीरवाला हूँ, मैं स्थूल शरीरवाला हूँ। मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य (वणिक) हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, स्त्री हूँ। मैं जवान हूँ, वृद्ध हूँ, रूपवान हूँ, शूरवीर हूँ, पंडित हूँ, श्रेष्ठ हूँ, इत्यादि शरीर-भेदों को मूढ़ अपने मानता है। मूर्च्छित व्यक्ति जननी, जनक, स्त्री, घर, पुत्र, मित्र, कुटुम्बीजन अन्य चेतन-अचेतन द्रव्यों जो मायाजाल हैं।असत्य हैं, को अपना मानता है। इतना ही नहीं, दु:ख के कारण पंचेन्द्रिय विषयों को सुख का कारण जानकर रमण करता है, इसके लिए परमात्मप्रकाश में कवि ने कहा है - हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु। हउँ तणु अँगउँ थूलु हउँ एहउ मूढउ मण्णु ।। 80॥ हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु । पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूदु विसेसु ।। 81॥ तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्यु । खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥ 82॥ जणणी जणणु वि कंत घरु पत्तु वि मित्तु वि दव्वु । माया-जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥ 83॥ दुक्खहँ कारणि जे विसय ते सुह-हेउ रमेइ । मिच्छाइट्ठिउ जीवडउ इत्थु ण काई करेइ ॥ 84॥ बहिरात्मा की धारणा का परिणाम बहिरात्मा अपनी विपरीत मान्यता के कारण आत्माधीन सुख को तो नहीं समझता है और जहाँ सुख नहीं है ऐसे पर-पदार्थों से सुख-प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहता है। अतः वह सुख से वंचित रहकर संसार में/मानसिक तनाव में चक्कर काटता है । आत्मज्ञान न होने से उसे सुखशांति उसी प्रकार नहीं मिलती जैसे बहुत विलोडन किये हुए पानी के द्वारा भी हाथ चिकना नहीं होता - णाण-विहीणहँ मोक्ख पउ जीव म कासु वि जोइ । बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ ॥ प. प्र. 2.74 कविवर जोइन्दु ने बहिरात्मा को संसार की भटकन/मानसिक तनाव से मुक्त होने का उपदेश दिया है। इसमें उन्होंने भेद-विज्ञान, पर-पदार्थों में आसक्ति के परिहार, संसार की असारता, इन्द्रिय, मन के नियंत्रण, चित्त शुद्धि, परमात्मा के ध्यान आदि पर विशेष बल दिया है और अपने कथ्य को विभिन्न दृष्टान्त, मुहावरे, लोकोक्ति, सूक्तियों के द्वारा स्पष्ट किया है। उन्हें ही यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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