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अपभ्रंश भारती 7
परमात्म-प्रकाश में भी आत्मा के तीन भेदों का उल्लेख मिलता है -
मूद वियक्खणु वंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ ।। 1.13 ।। आत्मा तीन प्रकार की होती है - 1. मूढ-मूर्च्छित आत्मा, 2. वियक्खण-जागृत आत्मा और 3. परमात्मा।
यहाँ मूढ-मूर्च्छित और बहिरात्मा एकार्थवाची हैं तथा वियक्खण-जागृत और अंतरात्मा एकार्थवाची हैं, मात्र नाम-भेद है। ये नाम जीव की मान्यता पर आधारित हैं। जो शरीर आदि पर-पदार्थों को अपना मानता है वह बहिरात्मा है। शरीर और आत्मा को पृथक माननेवाला अंतरात्मा है। परमात्मा आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है। बहिरात्मा ही भेदविज्ञान करके अंतरात्मा बनता है फिर निरन्तर आत्म-साधना द्वारा परमात्मपद प्राप्त कर लेता है। आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया व साधना के निरूपण हेतु ही ग्रन्थकार ने बहिरात्मा आदि भेद कर उसकी विस्तृत विवेचना की है तथा जन-सामान्य के लिए सरल और उदार ढंग से जीवनमुक्ति का सन्देश दिया है।
संसारी प्राणी जन्म से ही शरीर, इन्द्रिय और मन से तादात्म्य (एकीकरण) स्थापित कर लेता है। शरीर से संबंधित चेतन-अचेतन पदार्थों में भी उसकी अहं बुद्धि, ममत्व बुद्धि होती है। मनुष्य द्वारा एकीकरण स्थापित करने का उद्देश्य होता है - विभिन्न प्रकार की इच्छाओं को तृप्त करना। सामान्यतया वह नई-नई इच्छाओं की तृप्ति करता रहता है और इसीप्रकार जीवन का अभ्यस्त हो जाता है। वह मानसिक तनाव में जीता है और कष्टों को झेलता चलता है। मानसिक तनाव स्वयं कष्टपूर्ण होता है और दूसरे प्रकार के कष्टों का प्रतिफल भी होता है। सारे दुःखों की परिणति मानसिक ही होती है। मानसिक तनाव व्यक्ति की जीवनचर्या के अंग बन जाते हैं। मानसिक तनाव का मूल कारण शरीर आदि पर-पदार्थों से तादात्म्य करना ही है। पर-पदार्थों से तादात्म्य करनेवाला आत्महित भूलकर मूर्च्छित बना रहता है इसीलिए वह बहिरात्मा या मूर्च्छित आत्मा कहलाता है। परमात्मप्रकाश में कहा है -
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ ॥ 1.13॥ - देह को आत्मा माननेवाला व्यक्ति मूढ़/मूर्च्छित या बहिरात्मा होता है। योगसार में कहा है -
मिच्छादसण-मोहियउ परु अप्पा ण मुणेइ ।
सो बहिरप्पा जिण-भणिउ पुण संसार भमेइ ॥7॥ - मूर्छा के द्वारा मूढ़ बना हुआ व्यक्ति परम आत्मा को नहीं जानता है। वह जितेन्द्रियों द्वारा बहिरात्मा कहा गया है वह निश्चय ही संसार में चक्कर काटता है।