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अपभ्रंश भारती7
अक्टूबर 1995
जोइन्दु की कृतियों में बहिरात्मा का स्वरूप और सन्देश
- डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र'
अध्यात्मवेत्ता कवि मनीषी जोइन्दु अपभ्रंश साहित्य के कुन्दकुन्द माने जाते हैं। वे एक आत्मसाधक योगी थे। उन्होंने जीवनभर आत्माराधना की और आत्मा को ही अपनी रचनाओं का केन्द्र-बिन्दु बनाकर अध्यात्म-क्षेत्र को नया आयाम दिया। निर्विवाद रूप से उनकी दो रचनाएं मानी जाती हैं - परमप्पयासु (परमात्म-प्रकाश) और जोगसारु (योगसार)। दोनों कृतियों में कवि ने आत्मा के वास्तविक रहस्य को समझाकर परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त किया है। ___ जोइन्दु ने अपनी कृतियों में विविध दृष्टिकोणों से आत्मा के स्वरूप को समझाने का सफल प्रयास किया है। निश्चयनय से आत्मा शुद्ध-बुद्ध, ज्ञानदर्शन-स्वभावी, सचेतन, रंगहीन, गंधहीन, शब्दहीन, इन्द्रियों के अगोचर, क्रोध-मान-मोह आदि से रहित निराकार आदि विशेषताओं से समन्वित है।' इसे ही शिव, शंकर, बुद्ध, रुद्र, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा, सिद्ध आदि संज्ञाओं से अभिहित किया जाता है। व्यवहारनय की अपेक्षा आत्मा कर्ता, भोक्ता, शरीरप्रमाण है। योगसार में अवस्था की दृष्टि से आत्मा के तीन भेद बताये गये हैं -
तिपयारो अप्पा मुणहि परु अतरु बहिरप्पु ।
पर जायहि अंतर-सहिउ वाहिरु चयहि णिभंतु ॥6॥ - आत्मा के तीन प्रकार हैं - परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा। (तू) निःसन्देह होकर बहिरात्मा को छोड़ और अंतरात्मा के साथ-साथ परमात्मा को प्राप्त कर।