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अपभ्रंश भारती7
जोयइ व कमलसरलोयणेहिँ
जोयइ व कमलसरलोयणेहिँ णच्चइ व पवणहल्लियवणेहिँ । ल्हिक्कइ व ललियवल्लीहरेहँ उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहँ । वणियउ व विसमवम्महसरेहिँ कणइ व रयपारावयसरेहँ । परिहइ व सपरिहाधरियणीरु पंगुरइ व सियपायारचीरु । णं घरसिहरग्गहिँ सग्गु छिवइ णं चंदअमियधारांउ पियइ । कुंकुमछडएं णं रइहि रंगु णावइ दक्खालिय-सुहपसंगु । विरइयमोत्तियरंगावलीहिँ जं भूसिउ णं हारावलीहिँ । चिंधेहिं धरिय णं पंचवण्णु चउवण्णजणेण वि अइरवण्णु ।
णायकुमारचरिउ, 1.7 - वह नगर मानो कमल-सरोवररूपी नेत्रों से देखता था, पवन द्वारा हिलाये हुए वनों के रूप में नाच रहा था तथा ललित लतागृहों के द्वारा मानो लुका-छिपी खेलता था। अनेक जिन-मन्दिरों द्वारा मानो उल्लसित हो रहा था। कामदेव के विषम बाणों से घायल होकर मानो अनुरक्त परेवों के स्वर से चीख रहा था। अपनी परिखा में भरे हुए जल के द्वारा मानो परिधान । धारण किये था। तथा अपने श्वेत प्राकाररूपी चीर को ओढ़े था। वह अपने गृहशिखरों की चोटियों द्वारा स्वर्ग को छू रहा था और मानो चन्द्र की अमृतधाराओं को पी रहा था। कुंकुम की छटाओं से जान पड़ता था जैसे वह रति की रंगभूमि हो, और मानो वहाँ के सुख प्रसंगों को दिखला रहा हो। वहाँ जो मोतियों की रंगावलियाँ रची गयी थीं उनसे प्रतीत होता था जैसे मानो वह हार-पंक्तियों से विभूषित हो। वह अपनी उठी हुई ध्वजाओं से पचरंगा और चारों वर्गों के लोगों से अत्यन्त रमणीक हो रहा था।
अनु. - डॉ. हीरालाल जैन