________________
80
अपभ्रंश भारती 7
स्थान पर य, स के स्थान पर छ,श के स्थान पर स का होना, प्रभृति। डॉ. त्रिवेदी ने 'पृथ्वीराज रासो' की भाषा को एक दुर्भेद्य दीवार माना है जो आज भी उसके वास्तविक अर्थ की तह तक पहुँचने में बाधक है। परन्तु इन सभी अनैतिहासिकताओं, प्रक्षेपों तथा पाठांतरों के उपरांत भी 'पृथ्वीराज रासो' इतना लोकप्रिय क्यों है? इसका उत्तर त्रिवेदीजी अत्यन्त सटीक उदाहरण देकर व्याख्यायित करते हैं - अनैतिहासिक कूड़े-करकट के ढेर से आवृत्त 'पृथ्वीराजरासो' साहित्य-मनीषियों को उसी प्रकार अपनी ओर आकृष्ट करता है जिस प्रकार सिर पर जर्जरित लोम-पुटी डाले और गले में बीस मनकों की माला से रहित मुग्धा (के सौन्दर्य) ने गोष्ठ-स्थित (रसिकों) में उठा-बैठी करवा दी थी -
सिर जर-खण्डी लोअड़ी गलि मणियड़ा न बीस । तो वि गोट्ठडा कराविआ मुद्धएं उट्ठ बईस ॥
- हेमशब्दानुशासनम्, 424-4 और जिस प्रकार (पति के हृदय में) नववधू के दर्शनों की लालसा लगाये अनेक मनोरथ हुआ करते हैं - नव-वहु-दंसण-लालसउ बहइ मणोरह सोइ ।
- हेमशब्दानुशानम्, 401-1 लगभग उसी प्रकार साहित्यकार भी रासो के रहस्य के प्रति उत्सुक और जिज्ञासु हैं।
डॉ. त्रिवेदी ने इसकी लोकप्रियता के अन्य महत्त्वपूर्ण कारणों को भी स्पष्ट किया है। पृथ्वीराज का चरित्र अत्यन्त स्पष्टता के साथ उजागर किया गया है। नायक के उत्कर्ष हेतुओं के साथ ही उसके अपकर्ष हेतुओं को भी उल्लिखित किया है जिससे काव्यग्रंथ की प्रभविष्णुता. में वृद्धि होती है साथ ही स्वाभाविकता भी आती है। चंदवरदायी की अद्भुत वर्णना शक्ति भी इसकी लोकप्रियता का सशक्त कारण है। तद्युगीन मांग के अनुरूप एक दरबारी कवि के सारे गुण कवि चंद में थे तथा इसी शक्ति के फलस्वरूप ही उसने जनमानस के समक्ष एक ऐसा महाकाव्य प्रस्तुत किया जिसके प्रति आदिकाल से लेकर आधुनिक युग तक लोकोत्तर आकर्षण अक्षुण्ण बना हुआ है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि डॉ. त्रिवेदी का रासो संबंधी अध्ययन मौलिक, वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण तथा विचारोत्तेजक है। उन्होंने एक नये सिरे से रासो के विविध पक्षों को उद्घाटित किया जो वास्तव में एक स्तुत्य प्रयास है। 'पृथ्वीराज रासो' सम्बन्धी उनके अध्ययन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि उन्होंने उसकी ऐतिहासिकता के स्थान पर उसके साहित्यिक सौन्दर्य को उद्घाटित किया है। इसकी ऐतिहासिकता के संबंध में भी उनके विचार महत्त्वपूर्ण हैं, उनका मत है कि 'पृथ्वीराजरासो' में ऐतिहासिक तथ्यों की तुलना में अनैतिहासिक तत्त्व नाममात्र के हैं। 'पृथ्वीराजरासो' की ऐतिहासिकता के संबंध में उनका दृष्टिकोण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से समानता रखता है। 'पृथ्वीराजरासो' का वैज्ञानिक पाठानुसंधान करके उसके सही स्वरूप को निर्धारित करने हेतु उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण योजना