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अपभ्रंश भारती 7
छंदविधान', 'रस, छंद, अलंकार', 'पृथ्वीराज रासो : महाकाव्य', 'History of Hindi literature, Discriptive Catalogue of Rajasthani Manuscripts : (Part I)' हैं। 'पृथ्वीराज रासो' हिन्दी साहित्य के विवादास्पद ग्रंथों में सर्वप्रमुख है। इसकी प्रामाणिकता तथा स्वरूप के विषय में विद्वान आज भी एकमत नहीं हो पाये हैं । इस ग्रंथ का अनुशीलन पौरस्त्य तथा पाश्चात्य दोनों ही विद्वानों ने अपने दृष्टिकोणों से किया। इस ग्रंथ के प्रमुख अध्येताओं में कविराज श्यामलदास, विष्णुलाल मोहनलाल पंड्या, राधाकृष्णदास, श्यामसुंदरदास, पं. हरप्रसाद शास्त्री, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, मुनिराज जिनविजय, डॉ. दशरथ शर्मा, धीरेन्द्र वर्मा, माताप्रसाद गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, जेम्स टॉड, ग्राउज, जॉन बीम्स, डॉ. होर्नले, बूलर, मोरिसन, एल.पी. टेसीटरी, वूलनर, गासा द तासी तथा ग्रियर्सन प्रभृति हैं।
इसी परम्परा को आगे विकसित किया डॉ. त्रिवेदी ने। उन्होंने रासो का वैज्ञानिक एवम् मौलिक अध्ययन प्रस्तुत किया। उन्होंने 'पृथ्वीराज रासो' के विविध पक्षों, यथा - पृथ्वीराज रासो की भाषा, उसकी लोकप्रियता, धर्म, रामकथा, दशावतार चरित्र, गंगा की महिमा का गान, व्रत, पर्व, त्यौंहार, उत्सव, शकुन-अपशकुन, स्वप्न, सती प्रथा, शौर्य वर्णन, हास्य-व्यंग्य, बहुविवाह प्रथा, प्रमुख पात्र, बलभद्र विलास, ज्योनार, छंद विधान प्रभृति को गहनता के साथ प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त कविवर चंदवरदायी के काव्यकौशल का भी वर्णन किया है।
डॉ. त्रिवेदी के 'पृथ्वीराज रासो' सम्बन्धी अध्ययन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह था कि उन्होंने उसकी ऐतिहासिकता, प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता, प्रक्षेपों तथा पाठांतरों पर बल न देकर उसके साहित्यिक सौन्दर्य को उद्घाटित किया। इस संबंध में उनका मत है कि - ऐतिहासिक वादविवादों के कोलाहल से दूर 'पृथ्वीराज रासो' हिन्दी साहित्यकारों की अमूल्य विरासत है। काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से यह एक अनूठी रचना है।' काव्य-सृजन के दोनों प्रयोजनों - आनन्द तथा कीर्ति की प्राप्ति की दष्टि से भी यह ग्रंथ सफल है। अलंकारों का उचित प्रयोग, छंदों का सफल नियोजन, कथासूत्रों तथा काव्यरूढ़ियों का सन्निवेश, कथानक तथा अंत:कथानकों का प्रभावी संयोजन, सुललित भावाभिव्यक्ति प्रभृति काव्यात्मक गुणों से समन्वित ग्रंथ है 'पृथ्वीराज रासो'। 'पृथ्वीराज रासो' के काव्यात्मक सौन्दर्य का श्रेय त्रिवेदीजी रासोकार कवि चंद को देते हैं - 'पृथ्वीराज रासो' की भावाभिव्यंजना साधारण पाठक तथा श्रोता को इस प्रकार अग्रसर करती है कि वह मंत्रमुग्ध उस धारा में बहता चला जाता है। उसे यह विचारने का अवसर ही नहीं आता कि इस कथा में पौराणिक तथा अरेबियन नाइट्स के तत्त्व तो समाविष्ट नहीं हो गये हैं। वास्तव में यही रासोकार का काव्यकौशल है जो हमें उनकी प्रशंसा करने हेतु प्रेरित करता है।
'पृथ्वीराज रासो' की भाषा पर त्रिवेदीजी ने अपने विचारों को मौलिकता के साथ उपस्थित किया है। 'पृथ्वीराज रासो' की भाषा अत्यंत विलक्षण है । यद्यपि इसमें नियम हैं तथापि किसी का अक्षरश: पालन नहीं मिलता है। अधिकांश शब्दों तथा व्यंजनों के स्वरूप में स्वछंदता है परन्तु तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन हो जाता है तथा उनके संस्कृत, पालि,