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अपभ्रंश भारती7
या अपने दोष से यदि द्रव्य नहीं रहता तो उपरोक्त सभी तत्व लुप्तप्राय हो जाते हैं । गरीब द्रव्यविहीनता के कारण ही बिना मान-सम्मान के जी रहा है -
ताव बुद्धि ताव सुद्धि, ताव दाण ताव माण ताव गव्व । जाव जाव हत्थ णच्च, विज्जु-रेह-रंग णाइ, एक दब्ब ॥ एत्थ अंत अप्प-दोष, देव रोस होइ णट्ठ, सोइ सब्ब ।
कोइ बुद्धि कोइ सुद्धि, कोइ दाण कोइ माण, कोई गब्ब ॥ __ अपभ्रंश का कवि सामान्यजन के जीवन के प्रति कहीं भी कम स्पन्दनशील नहीं है। गरीबजनों के प्रति उसकी संवेदनाएँ सहज, स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी हैं । गरीब आदमी के लिए सभी ऋतुएँ, मौसम, हवाएँ कैंपानेवाली होती हैं । शीत की वृष्टि, पछुवाँ हवा, जाड़ा का रूठना अग्नि को पेट से लगाने को बाध्य कर देती हैं। हाथ-पैर-पीठ सिमट जाते हैं। प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'पूस की रात' का हलकू पूस की फूस की आग में अपने कुत्ते जबरा को पेट से सटाकर त्रासदीय संवाद की वह स्थिति बनाता है जहाँ से मात्र गरीबी की ही हाय निकलती है। इस तुलनात्मक स्थिति में अपभ्रंश के कवि की मार्मिक अभिव्यक्ति -
सिअ विट्ठी किज्जइ, जीआ लिज्जइ, बाला बुड्ढा कंपंता । बह पच्छा वाअह, लग्गे काअह, सव्वा दीसा झंपंता ॥ जड़ जड्डा रूसइ, चित्ता हासइ, पेटे अग्गी थप्पीआ ।
कर पाआ संभरि, किज्जे भित्तरि, अप्पा-अप्पी लुक्कीआ ॥" इस प्रकार हम देखते हैं कि अपभ्रंश के कवियों की संवेदनाएँ समाज के व्यापकतर छोर को छूती हैं। ये वे कवि नहीं हैं जिन्हें न व्यापै जगत गति'। अपभ्रंश की कविता की जड़ें अपने सामाजिक परिवेश में गहरे स्तर तक उतरती हैं। मर्म को छूती हैं। सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति देती हैं। सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश का जायजा देती हैं । जहाँ भद्रजनों के भावों की ऊँचाई मापती हैं वहीं आम जनता के विभिन्न रूपों की पहचान का प्रयास भी करती हैं । अपभ्रंश का सम्पूर्ण साहित्य अभी मिला नहीं है पर जो भी साहित्य प्राप्त है वह कम मूल्यवान नहीं है। उसकी अपनी महत्ता है। उसकी इस महत्ता को देखते हुए अपभ्रंश के बारे में किसी कवि का कहना समीचीन ही है कि - अपभ्रंश का सौन्दर्य उस सहज, स्वाभाविक, अलंकरण-विहीन सुन्दरी का है जिसके सिर पर जरा-जीर्ण लुगरी और गले में बीस मणियाँ तक नहीं हैं पर फिर भी अनेक मगध रसग्राहियों को उठक-बैठक करा देती है -
सिरि जर-खंडी लोअडी गलि मणियडा न बीस ।
तो वि गोठ्ठडा कराबिआ मुद्धए उट्ठ-बईस ॥ अंत में, मैं इतना ही कहूँगा कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य की इन संवेदनाओं को, जो आज के जीवन को भी बहुत गहराई तक छूती हैं, छोड़कर कोई भी समाज आगे बढ़ने का दावा