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अपभ्रंश भारती 7
आधुनिक साहित्य और 'नयी कविता' की चर्चा का स्वर 'लघु मानव' और 'सहज मानव' के प्रति संवेदनात्मक सज्ञानता एवं सामान्यजन की संज्ञा की पहचान की ओर विशेष रहा है। महानता की मूर्ति भंजित हुई है और सामान्यता की प्रतिष्ठापित । कथा साहित्य में प्रेमचन्द ने किसानों-मजदूरों, कामकरों और सामान्यजनों की संवेदनाओं की प्रामाणिक मनोवैज्ञानिक भावभूमि की अभिव्यक्ति देकर साहित्य में एक नये युग की शुरूआत की थी। उनमें यथार्थ - जीवन का प्रतिबिम्बन है साथ ही सामाजिक जीवन के संघर्षों का सम्मूर्त्तन भी । हम प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'पूस की रात' और महाकाव्यात्मक उपन्यास 'गोदान' का ही संदर्भ लेते हैं। किसानी की त्रासदी दोनों में व्याप्त है। एक किसान गाय के लिए तरसे और दूसरा दो जून की रोटी तथा सर्दी से बचने के लिए एक कम्बल के लिए तड़पे इससे बढ़कर किसान के जीवन की विडम्बना और क्या हो सकती है ? इनकी प्राप्ति के संघर्ष में पूरी जिन्दगी ही व्यथा - गाथा बन जाय यही तो इन दोनों का जीवन है। सब शोषक तत्व जोंक की तरह चूसकर इन्हें किसान से मजदूर बनने को बाध्य करते हैं। किसान और मजदूर जीवन की विडम्बना की वास्तविकता का रेशा-रेशा प्रेमचंद ने उद्घाटितकर रख दिया है। इसीलिए हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में गोदान की परिगणना की जाती है। प्रेमचंद के कथा साहित्य में मध्यवर्गीय परिवार और उसमें भी किसानों की कथा प्रमुख है। यह समसामयिकता का परिवेश लिये हुए भी है, तो फिर वह कौन-सा तत्व है जो उसे समसामयिकता के घेरे को तोड़कर सार्वकालिक और सार्वजनीन मर्म को छूती है । निर्विवाद रूप से वह है प्रेमचंद की मानवीय संवेदना की तीखी अनुभूति और पारिवारिक और गार्हस्थिक सहानुभूति; तल्खी, तेवर और विद्रोहात्मक स्वर के साथ। मैं अपभ्रंश के कुछ ऐसे ही संदर्भों की ओर संकेत करना चाहता जो किसान - सामान्यजन से जुड़े हैं पर जिनकी संवेदनाएँ पारगामी प्रभाव रखती हैं। आज भी मन और मस्तिष्क को झकझोर देने की मर्मस्पर्शिता उनमें व्याप्त है । कतिपय उदाहरणों से इसे स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है।
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अभी भी किसानी गरीबी और फटेहाली का एक दूसरा नाम है। अपभ्रंश के कवियों ने भी इस बेबसी को भलीभाँति देखा था । अपभ्रंश कवि जहाँ शलाका पुरुषों की जीवन-गाथा, संयमश्री को देखते हैं, वहीं गरीबों की आह-मार को भी । यहाँ एक ऐसा ही किसान है। उसकी गरीबी का आलम यह है कि उसके पास खेती के लिए एक जोड़ी बैल तक नहीं हैं। एक ही धौला (धवल-सफेद रंग का) बैल है। हल खींचने के लिए एक जोड़ी बैल की आवश्यकता है। किसान विवश और चिंतित है । उसे चिंता का भार सताये जा रहा है। परिवार परेशान है। अवसर का तकाजा है कि हल चलाया ही जाय। इस असहायता को धवला बैल देख रहा है, पर यह दृश्य देखकर तो वह विसूर उठता है, रो ही पड़ता है जब उसका मालिक जुए का दूसरा छोर अपने कंधे पर रख अपनी पत्नी से हल की मुठिया थाम लेने को कहता है 'अपने स्वामी की चिंता तथा जुए के भार को देखकर धवला (बैल) विसूर उठता है, रो पड़ता है, मूक भाषा में यह कहते हुए कि मैं ही क्यों न दोनों दिशाओं में जोत दिया जाऊँ, भले ही मेरे दो खंड क्यों न कर दिए जायें: घनीभूत संवेदना के तह को समेटे निम्न दोहा
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