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________________ 70 अपभ्रंश भारती 7 के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधों और स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ अलंकृत काव्यपरम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गई थीं और दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि हुए जो अत्यन्त सहजसरल भाषा में, अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अपने मार्मिक मनोभाव प्रगट करते थे। श्री हर्ष के नैषधचरित के अलंकृत श्लोकों के साथ हेमचन्द्र के व्याकरण में आये हुए अपभ्रंश दोहों की तुलना करने से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जायेगी। फिर धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी महान प्रतिभाशाली आचार्यों का उद्भव इसी काल में हुआ था और दूसरी तरफ निरक्षर संतों के ज्ञानप्रचार का बीज भी इसी काल में बोया गया। पं. राहुल सांकृत्यायन ने तो सरहपाद को नयी भाषा और नये छंदों के युग के आदि कवि के रूप में स्वीकार किया है और गोरखनाथ, ज्ञानदेव, कबीर तथा अन्य संतों को इन्हीं की परम्परा में माना है क्योंकि सरह की कितनी पंक्तियाँ किंचित् परिवर्तन के साथ पूर्ववर्ती संतों में मिल जाती हैं। अपभ्रंश की संवेदनात्मक चेतना का विस्तार अपनी ऐतिहासिक परिणिति के साथ मात्र मध्यकालीन साहित्य को ही नहीं अपितु परवर्ती साहित्य को भी प्रभावित करने में सक्षम रहा है। यह कहना उचित नहीं होगा कि अपभ्रंश में रूढ़िपोषकता एवं काव्य या कथा-रूढ़ियों अथवा अलंकारों का आग्रह नहीं है पर उसकी नवोन्मेषशालिनी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ अत्यधिक जीवन्त रही हैं। अपभ्रंश साहित्य की संवेदना की व्याप्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जैन मुनियों के भाव-विचार-दर्शन और चिंतन की चिंतामणि जहाँ यहाँ उद्भाषित है वहीं सहज साधना की दूसरी परम्परा की खोज करनेवाले सिद्धों-नाथों की सिद्धवाणी भी इसी में समाहित है। इसमें एक ओर जहाँ धार्मिकनैतिक आदर्शों, दार्शनिक विचारधाराओं से आध्यात्मिकता की ओर संचरण कराने का संदेश है तो दूसरी ओर रागप्रिय तथा लोकरंजित साहित्य का जीवन्त प्रवाह है। अपभ्रंश में जहाँ शील की शालीनता है, उदात्त, चरित्रवान तीर्थंकर, त्यागी, तपस्वी, सिद्ध, श्लाका पुरुषों की जीवनगाथा है, वहीं सामान्य गरीब किसान, दुःख और गरीबी की मारी विरहिणी और धनपाल जैसे सामान्य वणिक तथा कोशा वेश्या की दर्दभरी कहानियों की झाँकियाँ भी हैं। इसमें जहाँ भावपूरित स्तुतियाँ, जीवनानुभव से भरी सूक्तियाँ आध्यात्मिक रहस्यमयी अनुभूतियाँ, वैभव विलास की झाँकियाँ तथा इन्हें भी धूल-धूसरित करती हुई संयमश्री की अविचल छवियाँ चित्रित हैं वहीं आभीर, गुर्जर तथा गरीब घरों की वीर-रमणियों की वीरता-शौर्य, साहसयुक्त स्नेहसिक्त उत्प्रेरक वाणियों की छटा देखते ही बनती है। अपभ्रंश के रचनाकारों में एक विचित्र प्रकार का आत्मविश्वास था। वे अपनी संवेदनाओं को किसी भी कीमत पर बिना रोक-टोक के विस्तार देना चाहते थे। चाहे वे स्वयंभू हों, पुष्पदंत या धनपाल अथवा जोइन्दु, रामसिंह, देवसेन, कनकामर, हेमचन्द्र, सरह, कण्ह या अब्दुल रहमान। इस संदर्भ में अब्दुल रहमान का यह कथन कितना महत्वपूर्ण और सार्थकता लिये हुए है कि यदि मेरी अनुभूति अथवा संवेदना वास्तविक, यथार्थ और मार्मिक है तो उसे मुझे संप्रेषित करना ही है चाहे उसे कोई कुकविता ही क्यों न कहे, क्योंकि यदि रात में चन्द्रमा उदित होता है तो क्या घर में रात को दीपक नहीं जलाए जाते? यदि पल्लव जैसे कोमल करों द्वारा बजाई जानेवाली अति मधुर वीणा को लोग सुनते हैं तो क्या
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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