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नगर, ऋतु, ज्योतिष, पराक्रम एवं शौर्य-युद्ध से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के कारक तथा जीवनोपयोगी समग्र वस्तुओं के कारकों की महत्ता उत्प्रेक्षा अलंकार के द्वारा दिखाते हुए काव्यकलेवर एवं सुन्दरता में अभिवृद्धि कर दी है। वह किसी एक उपमान से संतुष्टि नहीं पाता है क्योंकि उसके ज्ञान की पिपासा अनन्त है । इसलिए वह उपमानों की लड़ी पर लड़ी पिरोता चलता है। कभी भी थकता हुआ प्रतीत नहीं होता है।" __ "जैन अपभ्रंश साहित्य की धारा हमें विक्रम की आठवीं सदी से सोलहवीं सदी तक प्राप्त होती है।""जैन अपभ्रंश साहित्य सभी दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। धर्मप्रधान काव्य होते हुए भी इनमें चारित्रों को अतिमानवीय रूप नहीं दिया गया है। जगत और जीवन के प्रति इन कवियों का दृष्टिकोण अत्यन्त स्वस्थ और सन्तुलित रहा है।"
"अपभ्रंश के चरितकाव्यों में 'णायकुमारचरिउ' का श्रेण्य स्थान है। इस चरितकाव्य के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त (ईसा की दसवीं शती) अपभ्रंश के महाकाव्यों में धुरिकीर्तनीय हैं। इनकी प्रख्यात काव्यत्रयी (तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकार, जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउ) में काव्यगुण-भूयिष्ठता की दृष्टि से णायकुमारचरिउ शिखरस्थ है।" "विकसित कला-चैतन्य से समन्वित यह चरितकाव्य न केवल साहित्यशास्त्र अपितु सौन्दर्य-शास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से भी प्रभूत सामग्री प्रस्तुत करता है । साहित्यिक सौन्दर्य के विधायक मूल तत्त्वों में पदशय्या की चारुता, अभिव्यक्ति की वक्रता, वचोभंगी का चमत्कार, भावों की विच्छित्ति या शृंगारिक भंगिमा, अलंकारों की शोभा, रस-परिपाक, रमणीय कल्पना, हृदयावर्जक बिम्ब, रम्य-रुचिर प्रतीक, आदि प्रमुख हैं। कहना न होगा कि 'णायकुमारचरिउ' में इन समस्त कलातत्त्वों का यथायथ विनियोग उपलब्ध होता है। संक्षेप में कहें तो, यह चरितकाव्य रूप, शैली और अभिव्यक्ति, कला-चेतना की इन तीनों व्यावर्तक विशेषताओं से विमण्डित है।"
"करकंडचरिउ में कथा-काव्यों की जितनी कथा-रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है, उतनी अन्य किसी में नहीं। फिर, इसके कथा-विन्यास एवं संघटन में, मूलकथा के साथ अवान्तर कथाओं के संयोजन में, लोक-भाषा अपभ्रंश के सहज ग्राह्य, सरल एवं लाक्षणिक प्रयोग में, रस और परिस्थिति के अनुरूप छन्द-विधान में एवं अभिव्यंजना की विविध नूतन-पुरातन शैलियों के शिल्प की दृष्टि से इन प्रबन्ध काव्यों में खण्डकाव्य और महाकाव्य दोनों मिलते हैं । कडवकबद्ध शैली का प्रयोग लगभग सभी रचनाओं में किया गया है। अलंकार-परम्परा के पालन के साथ ही इन्होंने तत्कालीन जीवन से नये उपमान भी लिये हैं । तत्कालीन इतिहास के अध्ययन और अनुसंधान की दृष्टि से भी जैन अपभ्रंश साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है।"
"अपभ्रंश के प्रभाव से हिन्दी साहित्य के विभिन्न अंग – कथासाहित्य, काव्य, छन्द और काव्यरूप सभी प्रभावित और पल्लवित हुए तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। हिन्दी के आदि महाकाव्य 'पृथ्वीराज रासो' पर अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।
"तुलसीदास के 'रामचरितमानस' पर स्वयंभूरचित 'पउमचरिउ' का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य पड़ा है।" "केशवदास की 'रामचन्द्रिका' अपभ्रंश काव्य 'जिनदत्तचरित' से