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________________ सम्पादकीय "अपभ्रंश को अधिकांश आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं की जननी होने का श्रेय प्राप्त है। अपभ्रंश की कुक्षि से उत्पन्न होने के कारण हिन्दी का उससे अत्यन्त आन्तरिक और गहरा सम्बन्ध है। अतः राष्ट्र भाषा हिन्दी की मूल प्रकृति और प्रवृत्ति से परिचित होने के लिए अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की अनिवार्यता सुधी अध्येताओं और अनुसंधित्सुओं के लिए हमेशा बनी रहेगी। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश की प्राय: पूरी परम्पराएं ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।" कहना नहीं होगा कि अपभ्रंश के कालजयी कवियों ने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं के द्वारा अपभ्रंश के यशस्वी साहित्य और उसके महत्व को शताब्दियों के बाद भी अक्षुण्ण रखने में पूर्ण सफलता अर्जित की है।" . "भाषा विशेष के अर्थ में 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग प्राय: छठी शती ई. के आसपास मिलता है। प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड और संस्कृत के आलंकारिकों में भामह को अपभ्रंश के प्रथम नामोल्लेख का श्रेय प्राप्त है - शब्दार्थो सहितौ काव्य गद्यपद्यं च तद्विधा। संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा॥ अपभ्रंश भाषा के विषय में वलभी (सौराष्ट्र) के राजा धरसेन द्वितीय का शिलालेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि. सं. 650 से पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों में प्रबन्ध-रचना में निपुण बताया है।" "अपभ्रंश के सम्पूर्ण विकासक्रम को डॉ. शिवसहाय पाठक तीन काल-खण्डों में विभाजित करते हैं - (अ) आदिकाल (ई. सन् के आसपास से 550 ई. तक), (ब) मध्यकाल (550 ई. से 1200 ई. तक) और (स) मध्योत्तरकाल (1200 ई. से 1700 ई. तक)। आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश सम्पूर्ण उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा थी। अपभ्रंश के वैयाकरणों में चण्ड, पुरुषोत्तमदेव, क्रमदीश्वर, हेमचन्द्र, सिंहराज, लक्ष्मीधर, रामशर्मा तर्कवागीश और मार्कण्डेय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । जर्मन विद्वान् रिचर्ड पिशेल को आदर के साथ अपभ्रंश का पाणिनी कहा जाता है।" "अपभ्रंश साहित्य में महाकाव्य का प्रथम रचयिता महाकवि स्वयंभू की विलक्षणता से कोई भी साहित्यविद् अपरिचित नहीं होगा। कवि की तीव्र एवं तीक्ष्ण बुद्धिरूपी लेखनी ने प्रस्तुत महाकाव्य में मूर्त-अमूर्त, प्रस्तुत-अप्रस्तुत, रस, गुण, रीति, शब्द-शक्ति, छन्द, शेष अन्य अलंकार आदि को उत्प्रेक्षा अलंकार का वाहक बनाकर काव्य के शिल्प-विधान में एक नया मोड़ दे दिया है।""इस कृति में कवि ने वर्ण अलंकार, छन्द, रस, दिवा-रात्रि, संध्या-प्रभात,
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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