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अपभ्रंश भारती7
और संस्कारित बनाना आसान काम नहीं होता। यह समयबद्ध भी नहीं होता। यह सतत चलनेवाली संघर्षशील गतिमान प्रक्रिया है। यह संघर्ष ही साहित्य की शक्ति है और इसका शक्तिशाली उपादान है भाषा। इसीलिए हर संवेदनशील सर्जक भाषा से संघर्ष और असन्तोष का अनुभव गहरे स्तरों पर बराबर करता रहता है क्योंकि भाषा उसके सम्पृक्त व्यक्तित्व का अनिवार्य और अभिन्न अंग है। अस्पष्ट संवेदनों के रूप में प्रतिभासित अनुभव को हम वास्तविक अर्थ में 'स्वकीय' भाषा के माध्यम से ही बना पाते हैं, अर्थात् भाषा के स्वरूप में ढलने पर संवेदन हमारे विशिष्ट अनुभव-क्षेत्र का अंग बन जाता है। फलतः साहित्यकार के नवीनतम विकास की दिशाएँ प्रमुखरूप से उसकी भाषा-प्रयोग-विधि में प्रतिफलित होती हैं।
विचारशील प्राणी होने के नाते मनुष्य में संवेदनशीलता की अपार सम्भावनाएं होती हैं। विचारशीलता के चलते ही मनुष्य की संवेदना में व्यापकता और गहराई आती है। उसकी आत्मचेतना या आत्मबोध प्रगतिशील बनकर लोकजीवन और लोकचेतना के साथ संपृक्त हो जाता है । सच्चे रचनाकार में 'ज्ञानात्मक संवेदना' और 'संवेदनात्मक ज्ञान' का सुष्ठ समन्वय होता है। इसी से वह भावुकता के अतिरेक से बचता है। अयथार्थ और नकली अनुभूतियों से अपना नाता तोड़ता है और बौद्धिकता तथा भावुकता में संतुलन स्थापित कर समाज को शक्ति तथा गति प्रदान करता है।
सर्जना मानवीय संवेदना की क्रिया है, वह व्यक्ति-चेतना की संवेदनशीलता का उच्च अवदान है, मानव की मानवीयता को परिस्फुरित और परिष्कृत करने की क्रिया का परिणाम है। संवेदनशील लेखक सामाजिक गतिविधियों का दर्शक ही नहीं, सहभोक्ता भी होता है । दर्शक का ज्ञान और भोक्ता की संवेदना के संतुलित संयोग से सर्जक की चेतना का निर्माण होता है जिससे कला स्फुरित होती है, जिसके माध्यम से साहित्यकार मानव में जीने की कामना और जीवन में विश्वास पैदा करता है। उसकी जिजीविषा-शक्ति को बढ़ाता है और गहरे स्तर पर मानवीय रागात्मक वृत्ति का प्रसार कर विश्व के साथ जीवन का प्रकृत सामञ्जस्य स्थापित करता है। सच्ची प्रवृत्ति और निवृत्ति की भावना जागरित करता है। यह कार्य वह संप्रेषण के माध्यम से ही करता है जिसकी परिधि में समस्त मानवीय संसार' और 'मानवीय सम्बन्ध' तथा 'मानवीय परिवेश' समाहित हो जाते हैं । यानी मानवीय अनुभूति, समसामयिक, सामाजिक यथार्थ, समुचित दार्शनिक पृष्ठभूमि तथा अभिव्यक्ति कौशल एवं संवेदनशील बोध से जो सर्जना संपृक्त होगी वही सार्थक होगी। यह संवेदनात्मक बोध ही जीवन और समाज के ऊबाऊ, घुटनभरे, रूढिबद्ध, पतनोन्मुख और मारक विषम स्थितियों से संघर्ष करता है, उन्हें ध्वस्त एवं नष्टप्राय बनाता है और निर्माणोन्मुख सामाजिक जीवन की विकासात्मक प्रक्रिया में आस्था जागृत करता है। __ ऐसी ही जकड़ी और स्तब्ध मनोवृत्ति को तोड़ने और समाज में नयी अन्तश्चेतना फैलाने का काम अपभ्रंश भाषा के कवियों ने अपनी व्यापक मानवीय संवेदना के माध्यम से किया। जनजीवन से कटते जा रहे भाषा के ढाँचे को, अयथार्थ घटाटोप को, संवेदना से रूँधी पर व्याकरणिक एवं आलंकारिक जकड़बन्दियों में बंधी भाषा के मोह को ध्वंसकर तथा नीचे से