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________________ अपभ्रंश भारती7 अक्टूबर 1995 67 अपभ्रंश में संवेदना के नये स्तरों का अन्तःसंधान और उनकी प्रासंगिकता - डॉ. शंभूनाथ पाण्डेय ज्ञान या ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव संवेदना है। यह वह प्रारंभिक प्रक्रिया या अनुभव है जिसकी उत्पत्ति किसी उत्तेजना से ग्राहक के उत्तेजित होने पर होती है। मनोवैज्ञानिक उण्ट तथा टिचेनर ने हर चेतन अनुभूति में आवश्यकरूप से संवेदना का संधान पाया है। मनुष्य अन्य जीव-जन्तुओं से इसीलिए विशिष्ट प्राणी है क्योंकि वह संवेदनशील है। मानव अपनी विशिष्ट देह-संरचना के कारण घ्राण, रस, त्वचा, दृष्टि तथा श्रोतृ संवेदनाओं से युक्त विशिष्ट संवेदना, अन्तरावयव संवेदना तथा स्नायविक संवेदनाओं का अधिकारी होता है। यह संवेदन सत्ता मनुष्य के भीतर सतत विद्यमान रहती है। पर पाया गया है कि जन के भीतर यह स्तब्ध रूप से पड़ी रहती है। उपयुक्त उद्दीपक या उत्तेजक के अभाव में वह स्पन्दित नहीं हो पाती। यह स्फोट, थिरकन या अन्तःस्पन्दन समाज या जनता की जीवन्तता का प्रतीक बनता है। यह संवेदना सामाजिक होकर सहानुभूति का समानार्थी बन जाती है। जीव-जगत के प्रति इसी संवेदना या सहानुभूति अथवा सहित की उच्च भावना का धनी होने के कारण रचनाकार साहित्यकार कहलाता है। साहित्यकार अपनी रागात्मिका और वैचारिक वृत्ति से जीवन और जगत में उन उद्दीपक उपादानों को सजग और सचेत होकर कलात्मक रूपात्मक अनुभूति का ताना-बाना देकर भाषा के माध्यम से समाज में प्रतिष्ठित करना वांछनीय समझता है, जिससे जनता के भीतर सौन्दर्य चेतना जागृत हो। वह श्रेयस्कर और सुन्दर को पहचाने, जाने-सीखे-रहे और उसका सम्मान करे। जन को सुरुचिसंपन्न
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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