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________________ 66 अपभ्रंश भारती7 जहिं सुरवरतरुणंदणवणाइँ तहिँ संठिउ ससहररविपईउ पहिलारउ पविउलु जंबुदीउ । वियरंतकोलखंडियकसेरु तहाँ मज्झि सुदंसणु णाम मेरु । खेडामगामपुरवरविचित्तु तहाँ दाहिणदिसि थिउ भरहखेत्तु । तहिँ मगहदेसु सुपसिद्ध अत्थि जहिँ कमलरेणुपिंजरिय हत्थि । जहिँ कणंदणवणाईं जहिँ पिक्क सालि धण्णइँ तणाई । वयसयहंसावलिमाणियाइँ जहिँ खीरसमाणइँ पाणियाइँ । जहिँ कामधेणुसम गोहणाई घडदुद्धइँ णेहारोहणाइँ । जहिँ सयलजीवकयपोसणाई घणकणकणिसालई करिसणाइँ । जहिँ दक्खामंडवि दुहु मुयंति थलपोमोवरि पंथिय सुयंति । जहिँ हालिणिकलरवमोहियाइँ पहि पहियइँ हरिणा इव थियाइँ । पुंडुच्छुवणइँ चउदिसु चलंति जहिँ महिससिंगहय रसु गलंति । जहिँ मणहरमरगयहरियपिंछ मायंदगोंछि गोंदलिय रिंछ । घत्ता - तहिँ पुरवरु णामें रायगिहु कणयरयणकोडिहिँ घडिउ । बलिवंड धरंतहाँ सुरवइहिँ णं सुरणयरु गयणपडिउ ॥6॥ णायकुमारचरिउ 1.6 - उस मध्यम लोक में सबसे विशाल जम्बूद्वीप है, जहाँ सूर्य और चन्द्र का प्रकाश होता है। उस जम्बूद्वीप के मध्य में सुदर्शन नामक मेरु है, जहाँ काँस को खोदते हुए सूकर विचरण करते हैं। उसे मेरु की दाहिनी दिशा में भरतक्षेत्र स्थित है। जो खेड़े, ग्राम और उत्तम नगरों से विचित्र दिखाई देता है। इसी भरतक्षेत्र में सुप्रसिद्ध मगध देश है. जहाँ कमलों के पराग से रंजित हाथी दिखाई देते हैं। जहाँ कल्पवृक्षों के सदृश नन्दन वन हैं। जहाँ पके हुए धान के खेत फैले हुए हैं। जहाँ सैकड़ों बगुलों तथा हंसों की पंक्तियों द्वारा सम्मानित क्षीर के समान पानी से भरे सरोवर हैं । जहाँ की गायें कामधेनु के समान घड़ों दूध देनेवाली और खूब घीवाली हैं। जहाँ के कृषिक्षेत्र समस्त जीवों का पोषण करनेवाले सघन दानों से युक्त बालोंसहित हैं। जहाँ पथिक दाख के मण्डप में अपना दुःख दूर करके स्थल-पद्मों के ऊपर सुख से सोते हैं। जहाँ किसानों की स्त्रियों के कलरव से मोहित होकर पथिक मार्ग में ही हरिणों के सदृश ठहर जाते हैं। जहाँ पौंडे एवं इक्षु के खेत चारों दिशाओं में हिलते-डुलते तथा महिषों के सींगों से आहत होकर रस गिराते दिखाई देते हैं। और जहाँ मरकत मणि के समान मनोहर हरे पंखों से युक्त शुक आमों के गुच्छों पर एकत्र दिखाई देते हैं। - ऐसे उस मगध देश में राजगृह नाम का उत्तम नगर है। जो स्वर्ण और रत्नों की राशि से गढ़ा गया है। मानो बलवान् देवेन्द्रों द्वारा धारण किये जाने पर भी देवनगर आकाश से आ गिरा हो ॥6॥ अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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