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________________ 60 अपभ्रंश भारती7 अपभ्रंश काव्यों की परम्परा में लौकिक खण्ड काव्य 'संदेश-रासक' का प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से कई अर्थों में विशेष महत्व है। यह रचना एक प्रकार से प्रकृतिपरक जनभावना की सहज अभिव्यक्ति है। प्राकृतिक सौन्दर्य ने भौगोलिक सीमाओं को भी सजीव कर दिया है। 'संदेश रासक' का पाठक पथिक और रमणि के दृश्य-चित्रण में खो जाता है। वह तादात्म्य स्थापित कर ऐसा अनुभव करता है जैसे वह स्वयं खुली प्रकृति के आंगन में आ खड़ा हुआ हो। यही 'संदेश-रासक' के प्रकृति-चित्रण की विशेषता है। निस्संदेह 'संदेश-रासक' में प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण हुआ है। उद्दीपन का प्रयोग संयोग या वियोग की तीव्रता को प्रकट करने के लिए किया जाता है । 'संदेश-रासक' में चित्रित 'षडऋतु-वर्णन' इसी लक्ष्य की पूर्ति करता है। पथिक द्वारा सहानुभूति प्रकट करते हुए जब विरह-विधुरा नायिका से यह पूछा गया कि तुम्हारा प्रिय तुम्हें कब छोड़कर गया था तो वह तपाक से जवाब देती है कि जिस ग्रीष्म ऋतु में वह अपने प्रियतम द्वारा छोड़ी गई वह ग्रीष्म भी आग में जल जाये। कितना स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक उत्तर है। इस प्रकार 'संदेशरासक' में ग्रीष्म ऋतु से षट्ऋतु वर्णन प्रारम्भ होता है। 'ग्रीष्म' का आगमन क्या हुआ उस संयुक्ता पर विरह का पहाड़ टूट पड़ा। 'विरोधाभास' अलंकार के द्वारा वह अपनी विरहावस्था के भुक्त सत्य का उद्घाटन करने लगी। विरह में मलय समीर भी असह्य हो गया। तीव्र एवं जला देनेवाली सूर्य की किरणों से प्रकृति भी जलने लगी (131)। तीखी रवि किरणों के प्रहार से धरती का कलेजा 'तड़-तड़' शब्द कर तड़कने लगता है और तूफानी अंधड़ चलने लगते हैं (132)। पपीहे 'पिउ पिउ' की रट लगाने लगते हैं तथा नदियों का जल सूखने लगता है (133)। और तो और ग्रीष्म ऋतु में उस कामपीड़िता विरहिणी को शीतलता प्रदान करनेवाले सभी उपादान भी दाहक लगने लगते हैं। वह कहती है - हरियंदणु सिसिरत्थु उवरि जं लेवियउ, तं सिहणह परितवइ अहिउ अहिसेवियउ । ठविय विविह विलवंतिय अह तह हारलय, कुसुममाल तिवि मुवइ झाल तउ हुइ सभय ।। 135॥ णिसि सहणिह जं खित्तु सरीरह सुह जणणु, विउणउ करइ उवेउ कमलदलसत्थरणु । इम सिज्जह उटुंत पडंत सलज्जिरिहि, पढिउ वत्थु तट दोहउ पहिय सगग्गिरिहिं ॥ 136॥ - प्रिय-विरह में जलती हुई नायिका को चंदन-लेप सर्पदंश की तरह दाहक लगने लगता है, कुसुममाला ज्वाला-सी तपाती है और शय्या पर बिखरे कमल-दल भी विरह दुःख को द्विगुणित करते हैं। यही नहीं रविकरों से अरविंद तपने लगते हैं, चन्द्रमा भी दाहक लगता है और कुसुम भी जले पर नमक छिडकते हैं -
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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