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अपभ्रंश भारती7
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साहित्य में प्रकृति का अनेक रूपों में चित्रण हुआ है। किन्तु काव्य में उसके दो रूप अधिक प्रसिद्ध रहे हैं - आलम्बन और उद्दीपन। इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल का मानना है कि कालिदास या इससे पूर्व से ही दृश्य-चित्रण के दो मार्ग थे। स्थल-वर्णन में तो वस्तु-वर्णन की सूक्ष्मता बहुत दिनों तक बनी रही पर ऋतु-वर्णन में चित्रण उतना आवश्यक नहीं समझा गया जितना कुछ इनीगिनी वस्तुओं का कथनमात्र करके भावों के उद्दीपन का वर्णन। इस दृष्टि से महाकवि कालिदासकृत ऋतुसंहार एवं मेघदूत के प्रकृति-चित्रण में यह उद्देश्य-भिन्नता स्पष्ट परिलक्षित होती है। किन्तु; कभी-कभी कवियों ने एक साथ ही सभी ऋतुओं का वर्णन विशिष्ट पद्धति में न करके यथावसर पात्रों के मुँह से ऋतुसौंदर्य का उद्घाटन करवाया है। कहीं-कहीं इस प्रकार के वर्णन इतने सुन्दर और स्वाभाविक हैं कि वे स्वतंत्रप्रकृति-वर्णन से कम अच्छे नहीं हैं। राजशेखर की कर्पूरमंजरी में इस प्रकार के कई सुन्दर प्राकृत श्लोक मिलते हैं।" - 'पउमचरिउ' अपभ्रंश का प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसमें महाकवि स्वयंभूदेव ने ग्रीष्म और वर्षा का जो स्वतंत्र रूप से सहज एवं प्राकृत वर्णन किया है वह किसके मन को नहीं मोह लेगा! पावस और ग्रीष्म के युद्ध का वर्णन उत्प्रेक्षा के द्वारा कितना आकर्षक बन पड़ा है -
जल-वाणासणि-घायहिं घाइउ, गिम्भ-णराहिउ रणे विणिवाइउ । ददुर रडेवि लग्ग णं सज्जण, णं णच्चन्ति मोर खल दुज्जण । णं पूरन्ति सरिउ अक्कन्दें, णं कई किलिकिलन्ति आणन्दें । णं परिहुय विमुक्क उग्घोसे, णं वरहिण लवन्ति परिओसें । णं सरवर वहु-अंसु-जलोल्लिय, णं गिरिवर हरिसें गजोल्लिय । णं उण्हविअ दवाग्गि विओएं, णं णच्चिय महि विविह-विणोएं । णं अत्थमिउ दिवायरु दुक्खें, णं पइसरइ रयणि सइँ सुक्खें ।
रत्त-पत्त तरु पवणाकम्पिय, 'केण वि वहिउ गिम्भु' णं जम्पिय ॥2 अर्थात् पानी की तीव्र बून्दोंरूपी बाणों के तीक्ष्ण प्रहार से ग्रीष्मरूपी राजा युद्ध में मारा गया। जिसके कारण मेंढक सज्जनों की तरह रोने लगे और मोर दुष्टों की तरह नाचने लगे। नदियाँ अश्रुप्लाबित हो बहने लगी और कवि प्रसन्न हो गए। ऐसा लगता था मानो कोयलें बोलने को स्वतंत्र हो गई हों और मोर संतोष व्यक्त कर रहे हों। तालाब मानो दु:ख के आंसुओं से लबालब भर गये हों और पर्वत पुलकायमान हो रहे हों। पृथ्वी तपन के वियोग में नाचने लगी हो। दुखितमन सूर्य अस्तंगत हो रहा हो और रजनी में सर्वत्र सुख व्याप्त हो गया हो। वृक्ष नव कोंपल जैसे सहजभाव से पूछ रही हो कि 'ग्रीष्म किसके द्वारा मारा गया ?'
इस प्रकार महाकवि स्वयंभू के परम्पराबद्ध प्रकृति-चित्रण में अलंकारों का खुलकर प्रयोग हुआ है। महाकवि पुष्पदन्त ने भी अपने 'महापुराण' में प्राकृतिक दृश्यों की झड़ी लगा दी है। प्राकृतिक दृश्य चित्रण में प्रकृति का आलंबनरूप में मनोमुग्धकारी चित्र प्रस्तुत करना 'महापुराण' की विशेषता है । इस परम्परा में 'भविसयत्तकहा', 'हरिवंशपुराण', 'जसहरचरिउ', 'जम्बूसामिचरिउ', 'करकण्डचरिउ', 'पउमसिरीचरिउ' आदि अनेक अपभ्रंश काव्यों को देखा जा सकता है।