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अपभ्रंश भारती7
___223 छन्दों की इस रचना का विषय विप्रलंभ श्रृंगार है जिसका अन्त संयोग (मिलन) में होता है। अन्त में नायिका का नायक से मिलन कवि की स्वतंत्र मौलिक उद्भावना है। प्रायः विरह काव्यों में नायिका का नायक से मिलन इतना शीघ्र नहीं होता। इस खण्ड काव्य की कथा बहुत संक्षिप्त अथवा अत्यल्प है। "कवि ने लोक-जीवन से उद्भूत स्वच्छंद और अकृत्रिम कथा के आधार पर अपने काव्य की रचना की है।"5 जैसलमेर के विजयनगर नामक नगर की एक विरहिणी सामोर (मुल्तान) से आते हुए एक पथिक को अपना विरह निवेदन कर रही है, जो खम्भात जा रहा है, जहाँ उसका पति रहता है। वह पथिक के द्वारा अपने पति को एक संदेश भेजना चाहती है, लेकिन संदेश समाप्त ही नहीं हो पाता है। जब-जब पथिक जाने को उद्यत होता है, नायिका उसे नवीन प्रसंग में उलझाकर रोक लेती है। इसी प्रकार कई बार होता है। अन्त में पथिक उस विरह-विदग्धा को सान्त्वना देता हुआ पूछता है कि तुम्हारा पति किस ऋतु में गया था? इसके उत्तर में वह कहती है कि वह ग्रीष्म ऋतु में गया था। बस अब क्या था? इसके बाद वह छहों ऋतुओं में उत्पन्न विरह की पीड़ाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने लग जाती है। एक के बाद दूसरी ऋतुएं बदलने लगती हैं। कवि की सहज भावधारा काव्यमयी भाषा में अनेक छन्दों में प्रकृति की छटा को विकीरण करने लगती है।
संदेश-रासक की सम्पूर्ण कथा 223 छन्दों एवं 3 प्रक्रमों में विभाजित है। अपभ्रंश या देशी भाषा में लिखित प्रथम मुसलमान कवि की इस रचना में ही प्रथम बार प्रक्रमों में कथा-विभाजन प्राप्त होता है। प्रथम प्रक्रम में प्रस्तावना, द्वितीय में कथा प्रारंभ तथा तृतीय प्रक्रम में षट्ऋतु वर्णन है। इसमें संदेह नहीं है कि प्रकृति चित्रण की दृष्टि से तृतीय प्रक्रम ही सर्वाधिक महत्व का है।
मनुष्य का प्रकृति से सहजात संबंध है। अपने चतुर्दिक वह प्रकृति से आवृत्त है। यूं कहा जाये कि मनुष्य की सृष्टि ही पंच प्राकृतिक तत्वों से हुई है, तो वह उससे अलग कैसे रह सकता है ? दार्शनिकता की दृष्टि से भी प्रकृति, जीव और आनन्द-सच्चिदानन्द स्वरूप ही है। डॉ. इन्द्र बहादुर सिंह का यह कथन उचित ही है कि "दृश्य प्रकृति मानव-जीवन को अथ से इति तक चक्रवात की तरह घेरे रहती है। मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बन्ध की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव जीवन का प्रतिबिम्ब है, अत: उस प्रतिबिम्ब में उसकी सहचारी प्रकृति का प्रतिबिम्ब होना स्वाभाविक है। इसीलिए अब्दुल रहमान ने ग्रंथारंभ में ही मंगलाचरण में समुद्र, पृथ्वी, पहाड़, पेड़ तथा आकाश के स्रष्टा को स्मरण कर प्रकृति और मानव के सम्बन्ध की दृढ़ता को ही दिखाया है। ___ भारतीय साहित्य में वैदिककाल से लेकर आधुनिक सभ्यता तक मानव कितने ही उतारचढ़ाव देखता आ रहा है, किन्तु कभी भी वह प्रकृति से विलग नहीं रह सका । प्रकृति के विपरीत आचरण उसके दु:ख का कारण रहा है। सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य के पूर्वार्द्ध में प्रकृति और मानव-जीवन को विलग करना आसान नहीं है। कालिदास और भवभूति के काव्य में प्रकृति को केवल जड़ कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में भी प्रकृति को विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है।