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अपभ्रंश भारती:
रसाभिव्यंजना में उसने औचित्य का सर्वत्र ध्यान रखा है। श्रृंगार-वर्णन में न तो कहीं संयोगकाल की क्रियाओं का अथवा नख-शिख का निधान है और न वियोग में आंतरिक भावों का विस्तृत विश्लेषण। यों मदनावली के अपहरण के समय करकंड के और करकंड के अपहरण के समय रतिवेगा के वियोग का कतिपय अर्द्धालियों में संकेतभर किया है। लगता है, लोकजीवन की इस विधा को कवि वैराग्य के जागरण के निमित्त ही चित्रित करता है, इसमें उसका मन रमा नहीं। मदनावली के अपहरण के समय करकंड को उदास हुआ देखकर, विद्याधर अपने संबोधन में नारी को नरक-वास उत्पन्न करनेवाली कहकर उसकी निन्दा करता है। यों वीररस का आकलन भी यहाँ हुआ है पर उसकी परिणति भी रससिक्त कर देनेवाली नहीं है। करकंड चम्पा-नरेश से तो क्षमा माँगता ही है, दक्षिण के चेल-चोल राजाओं से भी विजयी होकर, उनके मस्तक पर जिन-प्रतिमा को देखकर पश्चात्ताप करता हुआ, क्षमा-याचना करता है तथा उनका राज्य लौटाना चाहता है। अस्तु, लौकिक-सुख की प्राप्ति इसका कोई प्रयोजन नहीं है, बल्कि ऐसी घटनाओं के साथ ही कथा निर्वेद की ओर सहज गति से बढ़ती है, जो इसका प्राप्तव्य है इसी से करकंड के चरिउ की महत्ता का यहाँ प्रतिपादन हुआ है और इसके माध्यम से पारलौकिक-सुख के लिए पूर्व-जन्म के सिद्धान्त में विश्वास एवं धार्मिक व्रत-कथाओं के फल का निरूपण किया गया है।
इस कथा का नायक करकंड ही है जो प्रेमी राजकुमार है। अपभ्रंश की ऐसी अन्य रचनाओं के नायक भी सौदागर या व्यवसायी वणिक्-पुत्र एवं राजकुमार ही हैं। इन सभी में धीरता के तो दर्शन होते हैं पर उदात्त-अनुदात्त होने के कठोर बंधन का प्रतिपालन नहीं हुआ है। करकंड भी इस रूप में अपवाद नहीं है। इसमें औदार्य, शौर्य, क्षमा, धैर्य साहस और विवेक आदि गुणों का सहज समावेश तथा विकास दिखाई देता है। इस प्रकार ये प्रमुख पात्र मनुष्यत्व से देवत्व की ओर अग्रसर हुए हैं। अस्तु अपभ्रंश के इन चरित-प्रधान कथा-काव्यों में स्पष्ट रूप से नर से नारायण बनने की गाथा गर्भित है। इनमें जिस पौराणिकता का निरूपण हुआ है वह न तो हिन्दुओं के पौराणिक राम-कृष्ण आदि अवतारों की कथा से समता रखती है और न अपभ्रंश में लिखित जैनों के पुराण-साहित्य के साथ। बल्कि, यहाँ लोक-पुराण की आधार-भूमि पर कथा तथा पात्रों के सहज विकास को चित्रित करके आदर्श की प्रतिष्ठा की गई है। इस दृष्टि से अपभ्रंश का यह साहित्य अपना अलग ही अक्षुण्ण महत्त्व रखता है। इसमें साहित्य का रस भी है और जीवन का रस भी; इसमें लोक-परलोक दोनों का सामंजस्य है, मानवीय प्रकृति का सहज विकास है। अतः, काव्य-रूप के विचार से इस कथा-कृति को न तो चरित-काव्य कहने से ही संतोष होता है और न लोक-कहानियों के आधार पर रचा हुआ कथा-काव्य। पौराणिक-रोमांटिककाव्य" कहने पर तो इसकी मानवोचित नैतिक एवं धार्मिक मूल्यवत्ता ही खतरे में पड़ जाती है। अस्तु, कथा-रूप की दृष्टि से इसे लोक-परंपरा का पौराणिक एवं धार्मिक चरित-प्रधान कथा-काव्य कहा जा सकता है। इसका नामकरण भी इसी घटना पर आधारित न होकर, प्रधान पात्र के नाम पर ही हुआ है। नर से नारायण बनने का सत्य भी इसी से सहज अनुकरणीय हो गया है।