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________________ अपभ्रंश भारती 7 55 अस्तु, निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि यह प्रबन्ध जैन-धर्म की साधना की दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है, काव्य-रूप और शिल्प की दृष्टि से भी परवर्ती साहित्य का उपजीव्य बन गया है । जसहरचरिउ, णायकुमारचरिउ, नेमिनाथचरिउ आदि अपभ्रंश की ऐसी ही कृतियाँ हैं। परंतु, करकंडचरिउ में कथा-काव्यों की जितनी कथा-रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है, उतनी अन्य किसी में नहीं। फिर, इसके कथा-विन्यास एवं संघटन में, मूल-कथा के साथ अवान्तर-कथाओं के संयोजन में, लोक-भाषा अपभ्रंश के सहज-ग्राह्य, सरल एवं लाक्षणिक प्रयोग में, रस और परिस्थिति के अनुरूप छन्द-विधान में एवं अभिव्यंजना की विविध नूतन-पुरातन शैलियों के उपयोग में सर्वत्र मौलिकता ही दीख पड़ती है। सचमुच, जैन-कवि की कारयित्रि एवं भावयित्रि प्रतिभा का ऐसा सुन्दर सामंजस्य अन्यत्र नहीं। 1. There are also religious novels written entirely in verse, Aromantic epic of this kind is the 'Bhavisatta-kaha' in Apabhrans by Dhanpal. The explicit aim of the narrative is the glorification of the Panchmivrata. - A History of Indian literature - By M. Winternitz p. 532. 2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 61 । 3. हिन्दी के आदिकालीन रास और रासक काव्य-रूप, डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी', पृष्ठ 78 । 4. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 235 । 5. करकंडचरिउ, सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृ. 28 । 6. करकंडचरिउ, संपादक - डॉ. हीरालाल जैन, 3.2.2-6, पृ. 32 । 7. अपभ्रंश-साहित्य, डॉ. हरिवंश कोछड़, पृ. 41 । 8. करकंडचरिउ, संपादक - डॉ. हीरालाल जैन, 1.2.2-3, पृ. 2 । 9. वायरणु ण जाणामि जइ वि छंदु । सुग्प्रजलहि तरेव्वइँ जइ वि मंदु ॥ जइ कह व ण परसइ ललियवाणि । जइ बुहयणलोयहो तणिय काणि ॥ जइ कवियणसेव हु मइँ ण कीय । जइ तडयणसंग मालिण कीय ॥ तो सिद्धसेण सुसमंतभद्द । अकलंकदेव सुअजलसमुद्द ॥ जयएव सयंभु विसालचित्तु । वाएसरिघरु सिरिपुफ्फयंतु ॥ ___ - करकंडचरिउ, संपा. हीरालाल जैन, 1.2.5-9, पृ. 2 10. वही, 10.28.6-7 । 11. महापुराण, पुष्पदंत, हिंदी-काव्यधारा, राहुल सांकृत्यायन पृ. 178 । 12. करकंडचरिउ, संपादक - डॉ. हीरालाल जैन, 10.28, घत्ता, पृ. 160 । 13. (i) जो पढइ-ए वसह वदीत, सो नरो नितु नव निहि लहइए। - भरतेश्वर बाहुबलिरास, रास और रासान्वयी काव्य - ना. प्रचा. सभा, छंद 203, पृ. 82 (ii) पढइ गुणइ जे संभलहि, ताहइ विघ्न टलेसि। बुद्धिरास, वही, 63, पृ. 90 (iii) गंगा सनान दिन प्रति लहय। जे नरिंद रासो सुनय ॥ - पृथ्वी. रासो, वही,पृ. 2506
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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