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अपभ्रंश भारती 7
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रूप पर ईर्ष्या, 7. श्मशान में पुत्र पैदा होना, 8. मातंग (चांडाल) द्वारा पुत्र का लिया जाना और पालन-पोषण करना, 9. हाथी द्वारा राज्याभिषेक, 10. मातंग को पूर्व विद्याधर ऋद्धि प्राप्त होना, 11. पिता-पुत्र के मध्य युद्ध होना और माता द्वारा दोनों का परिचय कराना, 12. दिग्विजय के लिए राजाओं के मस्तक पर पैर रखने का संकल्प लेना, 13. पर्वत की गुफा की बामी में स्थित जिन-प्रतिमा पर हाथी-द्वारा जल तथा कमल चढ़ाया जाना, 14. प्रतिमा की गाँठ में जलवाहिनी का निकलना, 15. जिन-प्रतिमा का अचल होना, 16. विद्याधरों द्वारा वेश-परिवर्तन, 17. मानवेतर जीवों द्वारा सहायता, 18. सिंहलद्वीप की राजपुत्री से विवाह, 19. जल-मार्ग में मच्छ द्वारा नौका पर आक्रमण, 20. जल में विद्याधर-पुत्री द्वारा राजा का अपहरण और उसके साथ विवाह, 21. रानी को वैराग्य होना, 22. पद्मावती-देवी का प्रकट होना, 23. पराजित राजाओं के मस्तक पर पैर रखते समय जिन-प्रतिमा का दर्शन होना, 24. अपहरण की हुई रानी को पुनः विद्याधर द्वारा राजा को सौंपना, 25. पूर्व-जन्म की कथाओं में विश्वास, 26. मुनि के उपदेश से वैराग्य और फिर दीक्षा, 27. तप-द्वारा नारीत्व का अंत तथा रानियों का वैराग्य, आदि। ___ ये सभी कथारूढ़ियाँ लोक-जीवन में विविध स्रोतों से संबद्ध हैं। कुछ धार्मिक हैं, तो कुछ लोक-कहानियों से गृहीत; कुछेक प्रेमाख्यानक हैं, तो कुछ निजधरी-कथाओं से संबंधित। इन कथारूढ़ियों या अभिप्रायों (Motif) के प्रयोग से जहाँ कथानक में रोचकता आती है वहाँ कथा को गति भी मिलती है। फलतः पाठक या श्रोता उससे स्वयं को दूर नहीं कर पाता। डॉ. सत्येन्द्र इन्हें ही कला-तन्तु कहते हैं और किसी भी असाधारण तत्त्व को ऐसा मानते हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि 'करकंडचरिउं' की यह कथा लोक-जीवन से उद्धृत है जिसे कवि-कल्पना एवं विविध कथानक-रूढियों ने सजाया-सँवारा है। तभी तो लोक-मानस.लोकमनोविज्ञान तथा लोक-संस्कृति का भव्य चित्र यहाँ दर्शनीय है। अपभ्रंश के अन्य कथा-काव्यों की भाँति इसमें भी यथार्थ से आदर्श की ओर बढ़ने तथा जीवन के चरम-लक्ष्य की प्राप्ति का संदेश निहित है तो जन-सामान्य की मांगलिक भावनाओं की मधुर अभिव्यंजना भी हुई है। सामान्यत: इसमें जीवन के घोर दुःखों के बीच उन्नति का मार्ग प्रदर्शित है जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति सुख एवं मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसकी मूल कथा छोटी है, पर वस्तु-वर्णन तथा विभिन्न अभिप्रायमूलक घटनाओं के योग से समूचे जीवन का चित्र चित्रित करनेवाले प्रबंधकाव्य का रूप ग्रहण कर लेती है। इसके कथानक का विकास मानव-जीवन की पूर्णता को ध्यान में रखकर क्रमशः होता है, जिसे नायक-नायिका संयोग-वियोग के आवर्तों में झूलकर, अंत में संसार से निवृत्त होकर पारमार्थिक प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होकर प्राप्त करते हैं। ___ करकंड के चरित-संबंधी इस कथानक को तीन भागों में रखा जा सकता है - जन्म से लेकर दंतीपुर के राजा बनने की कथा, पिता से युद्ध और दिग्विजय तथा शेष जीवन और धर्मानुष्ठान। प्रथम दो के अंतर्गत कवि मानव-जीवन के घात-प्रतिघात, भोग-उपभोग, वैभव तथा ऐश्वर्य एवं उतार-चढ़ाव को लोक-कहानी की रोचक-शैली में आकलित करता है और फिर अंतिम भाग में उसके पारमार्थिक सत्य को उजागर करता है । इसप्रकार कथानक का पूर्वार्द्ध शृंगार के संयोग-वियोग से रंजित है, तो उत्तरार्द्ध में उसका पर्यवसान शांत रस से संपृक्त है। अपनी इस