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अपभ्रंश भारती 7
का अंत होता है । छोटी-छोटी अवांतर - कथाओं के समावेश के कारण यहाँ अतिलौकिक बातों का सहज प्रवेश हो गया है। पौराणिक प्रभाव भी इन पर देखा जाता है। फिर भी, रोचक स्थलों के अतिरिक्त वर्णनात्मकता में भी सरसता एवं मधुरता का निर्वाह हुआ है । राज्याभिषेक के बाद करकंड के दंतिपुर में प्रवेश के समय, नगर की नारियों के हृदय की व्यग्रता का बिम्ब सचमुच मुनि कनकामर के रसिक हृदय का सहज परिचय देता है
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कवि रहसइँ तरलय चलिय णारि । विहडफ्फड संठिय का वि वारि ॥ कवि धावइ णवणिवणेहलुद्ध । परिहाणु ण गलियउ गणइ मुद्ध ॥ कवि कज्जलु वहलउ अहरे देइ । णयणुल्लएँ लक्खारसु करेइ ॥ णिग्गंथवित्ति कवि अणुसरेइ । विवरीउ डिंभु कवि कडिहिं लेइ ॥ कवि उरु करयलि करइ बाल । सिरु छंडिवि कडियले धरइ माल ॥
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अपभ्रंश के कथा- काव्य सामान्यतः तीन रूपों में मिलते हैं। प्रेमाख्यानक, व्रत- माहात्म्यप्रदर्शक और उपदेशात्मक । प्रथम दो का कथा-संघटन प्राय: समान होता है। अपभ्रंश के चरिउ - काव्यों में भी इन्हीं का अनुसरण होता है । प्रेमाख्यानों की प्रवृत्ति लोक कहानियों से प्रभावित होती है, तो दूसरा रूप पौराणिक परंपरा के साहचर्य्य में पल्लवित होता है । प्रस्तुत 'करकंडचरिउ' का कथा-रूप इन दोनों से प्रभावित है। तभी कवि की कल्पना का मेल तथा धार्मिकता का आवरण पौराणिक रूढ़ियों के साथ देखा जाता है। श्रोता-वक्ता की कथा रूढ़ि का प्रयोग प्रारंभ में न होकर, कथा के अंत में करकंड तथा मुनि और पद्मावती एवं मुनि के परस्पर संवादों में दर्शनीय है । यहीं उपदेशात्मक प्रवृत्ति का भी साक्षात्कार होता है । अस्तु, जैनाचार्यों द्वारा लिखित प्राकृत की 'समराइच्चकहा' तथा 'वसुदेवहिण्डि' जैसी धर्म-कथाओं की परंपरा इन चरिउ - काव्यों में चलती प्रतीत होती है । 'ये चरिउ - काव्य तथा कथात्मक-ग्रंथ प्रायः धर्म के आवरण से आवृत्त हैं। अधिकांश चरिउ-काव्य प्रेमाख्यानक या प्रेम-कथापरक काव्य हैं। इन सुन्दर और सरस प्रेम-कथाओं को उपदेश, नीति और धर्म-तत्त्वों से मिश्रितकर इन कवियों ने धर्म-कथा बना डाला ।” धार्मिक उद्देश्य के अनुसार लोक-कथाओं को मोड़ने और कुछ नया गढ़ देने की यह प्रवृत्ति हिन्दी के परवर्ती सूफी प्रेमाख्यानों में भी दीख पड़ती है । अनेक काव्य - रूढ़ियों तथा कथानक - रूढ़ियों का प्रयोग भी कथा-संघटन के लिए उनमें इन्हीं के प्रभाव-स्वरूप किया गया प्रतीत होता है। हिन्दी के आदिकालीन अनेक रास - काव्य तथा मध्यकालीन प्रबंध-काव्य इस दृष्टि से अपभ्रंश - साहित्य के सदैव ऋणी रहेंगे।
'करकंडचरिउ' में इस प्रकार की अनेक काव्य- रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। प्रथम संधि थम कड़वक में ही श्री जिनेन्द्रदेव की चरण-वन्दना की गई है (1.1.1-10)। तदुपरि, इसी संधि के द्वितीय कड़वक में प्रतिपाद्य विषय का संकेत किया है
जणसवणसुहावउ महुरु ललिउ । कल्लाणयविहिर यणेण कलिउ ॥ पुणु कहमि पयडु गुणणियरभरिउ । करकंडणररिंदहो तणउ चरिउ ॥