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________________ अपभ्रंश भारती7 अक्टूबर 1995 करकंडचरिउ : कथा-रूप और शिल्प - डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' संस्कृत-साहित्य की परम्परा में परवर्ती प्राकृत-अपभ्रंश के रचयिताओं ने भी कथात्मकविधा को बहुत अधिक समृद्ध किया। किंतु, अपभ्रंश के जैन मुनियों और आचार्यों ने तो रूप और शिल्प की दृष्टि से इस विधा को जिस प्रकार सजाया, सँभाला तथा नव्यतम साँचे में ढाला वह सचमुच अपभ्रंश-साहित्य की गरिमा बन गया है। उनके द्वारा रचित चरिउ तथा रास आदि काव्य-रूपों में भी कोई-न-कोई कथा ही अनुस्यूत रहती है। ये सभी कथाएँ प्रायः पद्यबद्ध होती हैं। धनपाल-कृत अपभ्रंश की भविसयत्तकहा" ऐसी ही पद्यबद्ध रचना है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने प्राकृत में लिखी गुणाढ्य की 'वृहत्कथा' से ही ऐसी पद्यबद्ध कथाओं की लोक-भाषा में लिखी जाने की परंपरा का संकेत किया है। जिस प्रकार 'दूहा' अपभ्रंश का लाड़ला छन्द रहा है उसी प्रकार कथा-काव्यों की मौलिक तथा सरस-संपन्न संरचना इसके साहित्य की अपनी विशेषता रही है। फिर, इस विधा का तो जैन-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। कारण, जैनों के साहित्य-प्रणयन का मुख्य उद्देश्य जन-साधारण के हृदय तक पहुँचना था और कथा-साहित्य से बढ़कर ऐसा सुग्राह्य माध्यम दूसरा नहीं हो सकता। एतदर्थ, उन्होंने अपने सभी ग्रंथों को अनेक प्रकार की कथाओं से सरस और मनोरंजक बनाने का प्रयत्न किया। अपभ्रंश के इन कथा-काव्यों की विषयवस्तु लोक-जीवन से गृहीत होने के साथ-साथ जैन-मुनियों की उर्वर कल्पना-शक्ति की भी परिचायिका है। तत्कालीन प्रचलित विविध लोक
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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