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________________ अपभ्रंश भारती7 अण्णहिँ दिणि वरु सेविउ घरिणिहिँ, सरे पइट्ठ करि विव सहुँ करिणिहिँ । पणइणिपरिमिएण वित्थारें, सलिलकील पारद्ध कुमारें । गयणिवसण तणु जले ल्हिक्कावइ, अद्भुम्मिल्लु का वि थणु दावइ । पउमिणिदलजलबिंदु वि जोयइ, का वि तहिँ जिहारा वलि ढोयइ । का वि तरंगहिँ तिवलिउ लक्खइ, सारिच्छउ तहो सुहयहो अक्खइ । काहे वि महुयरु परिमलबहलहो, कमलु मुएवि जाइ मुहकमलहो । सुहुमु जलोल्लु दिट्ठणहमग्गउ, काहे वि अंबरु अंगि विलग्गउ । काहे वि उप्परियणु जले घोलइ, पाणियछल्लि व लोउ णिहालइ । 3.8 ॥ अर्थात्, एक दिन नागकुमार अपनी दोनों पत्नियों के साथ पद्मसरोवर में वैसे ही प्रविष्ट हुआ, जैसे दो हथिनियों के साथ हाथी सरोवर में आ बैठा हो। जलक्रीड़ा प्रारम्भ होते ही दोनों युवती पत्नियों में से एक ने जल में अपने अंगों को छिपा लिया और एक ने अर्धावृत स्तन का प्रदर्शन किया। कमल के पत्ते पर फिसलते जलबिन्दु, उन युवतियों की टूटकर बिखरी हारावली के दाने के समान दिखाई पड़ते थे। एक ने जल के तरंग में अपनी त्रिवली का प्रदर्शन करते हुए अपने पति से कहा - 'देखो, जल और त्रिवली, दोनों की तरंगों में कितनी समानता है।' एक पद्मिनी पत्नी के सुगन्धित या कमलगन्धी मुखपर भ्रमर कमल की सुरभि को छोड़कर आ बैठा। किसी युवती का झीना और भीगावस्त्र अंग से ऐसा चिपक गया कि नाभि-विवर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा, किसी युवती की ओढ़नी शरीर से खिसक कर जल में तैरने लगी, जिसे लोग जल की छाल समझकर निहारने लगे। इस स्नान-दृश्य में श्रृंगार की भाषा में निरूपित उदात्त सौन्दर्य का यह चित्र महाकवि के अन्य अनेक भव्य चित्रों में निदर्शनीय है। इसमें महाकवि ने अपनी रमणीय वचोभंगी द्वारा सौन्दर्य के जिस आवेग को रूपायित किया है वह उदात्त की सृष्टि करता है। महाकवि की यह सौन्दर्यानुभूति उनकी कलानुभूति का ही पर्याय है। निश्चय ही, महाकवि पुष्पदन्त श्रृंगारिक उदात्त के शिल्पन में असाधारण प्रातिभ चेतना से सम्पन्न कलाकार थे। __ महाकवि ने नारी-सौन्दर्य के समानान्तर पुरुष-सौन्दर्य के भी उदात्त चित्र आँकने में विस्मयकारी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया है। यहाँ नागकुमार के यौवन का सौन्दर्य-चित्र दर्शनीय है - पुरिससीहु णवजोव्वणे चडियउ, णाइँ पुरंदरु सग्गहो पडियहु । अवसणु सच्छु अरूसणु सूरउ, पवरबलालउ जुत्तायारउ । दूरालोइ यदीहरसुत्तउ, बुद्धिवंतु गुरुदेवहँ भत्तउ । सोमु अजिंभचित्तु कयदाणउ, थूललक्खु पुरिसोत्तमु जाणउ । अइपसत्थु णिज्जियपंचिंदिउ, थिरु संभरणसीलु बुहवंदिउ । सोहइ वट्टल पाणिपवट्ठहिँ, उण्णयपायपुट्ठिअंगुहहिँ । उण्णयवित्थिपणे भालयलें, उण्णयभुयसिहरहिँ बलपवलें ।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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