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अपभ्रंश भारती7
___ महाकवि पुष्पदन्त ने इसी विलक्षण राजपुत्र नागकुमार के अद्भुत चरित का विस्तार इस चरितकाव्य में अतिशय कला-रुचिर और सौन्दर्य-मण्डित काव्यभाषा में किया है। काव्यभाषा सामान्यभाषा के अन्त:स्थित विशिष्ट भाषा होती है जिसमें ग्रथन-कौशल से लालित्य और सौन्दर्य का आधान होता है । 'णायकुमारचरिउ' काव्य की अन्तर्वस्तु में महाकवि पुष्पदन्त की, भाषिक गुम्फन की निपुणता से उत्पन्न कला-तत्त्व की वरेण्यता के कारण साहित्यिक सौन्दर्य का मनोमुग्धकारी विनियोग हुआ है। महाकवि ने सौन्दर्य-सृष्टि के क्रम में अपनी कल्पना और सहजानुभूति को भाषिक अभिव्यक्ति द्वारा मूर्त रूप देकर अनेक मोहक बिम्बों की भी सृष्टि की है। परन्तु इस निबन्ध में 'णायकुमारचरिउ' में महाकवि पुष्पदन्त की सौन्दर्य-चेतना पर दृक्पात करना ही मेरा अभीष्ट है। 'णायकुमारचरिउ' के बिम्बविधान की चर्चा तो स्वतन्त्र प्रबन्ध का विषय है। __ विकसित कला-चैतन्य से समन्वित यह चरितकाव्य न केवल साहित्यशास्त्र, अपितु सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से भी प्रभूत सामग्री प्रस्तुत करता है। साहित्यिक सौन्दर्य के विधायक मूल तत्त्वों में पदशय्या की चारुता, अभिव्यक्ति की वक्रता, वचोभंगी का चमत्कार, भावों की विच्छित्ति या श्रृंगारिक भंगिमा, अलंकारों की शोभा, रस-परिपाक, रमणीय कल्पना, हृदयावर्जक बिम्ब, रम्य-रुचिर प्रतीक आदि प्रमुख हैं। कहना न होगा कि 'णायकुमारचरिउ' में इन समस्त कलातत्त्वों का यथायथ विनियोग उपलब्ध होता है। संक्षेप में कहें तो, यह चरितकाव्य रूप, शैली और अभिव्यक्ति, कला-चेतना की इन तीनों व्यावर्त्तक विशेषताओं से विमण्डित है।
इस चरितकाव्य में यथावर्णित पात्र-पात्रियों और उनके कार्यव्यापारों को चित्रात्मक रूप देने का श्लाघ्य प्रयत्न किया गया है। कलाचेता महाकवि पुष्पदन्त ने लोक-मर्यादा, वेश-भूषा, आभूषण-परिच्छद, संगीत-वाद्य, नृत्य-नाट्य, अस्त्र-शस्त्र, पान-भोजन आदि कलात्मक उपकरणों तथा शब्दशक्ति, रस, रीति, गुण, अलंकार आदि साहित्यिक साधनों का इस चरितकाव्य में यथाप्रसंग सम्यक् विनिवेश किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य है - साहित्यिक और कलात्मक सौन्दर्य का ततोऽधिक संवर्द्धन।
सौन्दर्य विवेचन में मुख्यत: नख-शिख के सौन्दर्योद्भावन को अधिक महत्त्व प्राप्त है। महाकवि पुष्पदन्त ने सौन्दर्योद्भावन के क्रम में उदात्तता या भव्यता (सब्लाइमेशन) का विशद विनियोजन किया है। इस सन्दर्भ में वधू के वेश में उपस्थित कनकपुर नगर की रानी पृथ्वीदेवी के सौन्दर्य की उदात्तता और भव्यता दर्शनीय है -
णिय वणिणा कणयउरहो मयच्छि, दिट्ठा वरेण णं मयणलच्छि । जो कंतहे णहयलि दिठ्ठ राउ, महु भावइ सो णहयरणिहाउ । चारत्तु णहहँ एए कहंति, अंगुट्ठय परमुण्णय वहति । गुप्फइँ गूढत्तणु जं धरंति, णं भुअणु जिणहुँ मंतु व करंति ॥ जंघाजुयलउ णेउरदुएण, वणिज्जइ णं घोंसें हुएण । वग्गइ वम्भहु वहुविग्गहेण, जण्हुयसंधाए परिग्गहेण ।