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अपभ्रंश भारती 7
युद्ध में हनुमान निशाचरों से ऐसा घिरा मानो नभ-तल में बादलों ने बालसूर्य को घेर रखा हो। हनुमान अकेला और शत्रु सेना अनन्त थी । वह मानो गजघटा के बीच सिंह हो । वह सैन्य-झुण्ड और गजघटा को ऐसा नष्ट करता है मानो बांसों के झुरमुट में अग्नि लगी हो । उस महायुद्ध में उत्साह से पूर्ण एक रथवाला था तथा काल - सदृश सेना में भ्रमण करता रहा ।
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कवि स्वयंभू ने अद्भुत रस के माध्यम से उत्प्रेक्षा अलंकार का भी वर्णन किया है घत्ता - ताव कियन्तवत्त भडेण रिउ आहउ सत्तिए । पडणत्थवणइँ दावियइँ णं सूरहो रत्तिए ॥
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कृतान्तपत्र सेनापति ने रण में शत्रु को शक्ति से घायल किया मानो रात्रि ने सूर्य को अस्तकालीन पतन दिखाया हो ।
एक दिन रावण नित्यालोक नगर से आ रहा था कि उसका यान बिना किसी के रोके हुए
रुक गया -
वालु ॥
महरिसि-तव-तेएं थिउ विमाणु । णं दुक्किय-कम्म-वसेण दाणु ॥ णं सुक्कें खीलिउ मेह-जालु । णं पाउसेण कोइल णं दूसामिऍण कुडुम्ब - वित्तु । णं मच्छें धरिउ महायवत्तु ॥ णं कञ्चण-सेलें पवण-गमणु । णं दाण- पहावें णीय-भवणु ॥ णीसउ हूयउ किङ्किणीउ । णं सुरऍ समत्तऍ कामिणीउ ॥ घग्घरैहि मि घवघव-घोसु चत्तु । णं गिम्भयालु ददुरहुँ पत्तु ॥ णरवरहुँ परोप्परु हूउ चप्पु । अह धरणि एजेविणु धरणि-कम्पु ॥ पडिपेल्लियउ वि ण वहइ विमाणु । णं महारिसि भइयए मुअइ पाणु ॥ 13.1
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- आकाश में (रावण का ) विमान अचानक रुका मानो पापकर्म से दान (अथवा ) मानो शुक्र नक्षत्र से मेघजाल स्खलित हो, मानो वर्षा से कोयल की ध्वनि, मानो दुष्ट स्वामी से परिवार का धन (अथवा) मानो मच्छ ने महा कमल को पकड़ा हो, मानो सुमेरु पहाड़ ने पवन की गति से, मानो दान के प्रभाव से नीच, भवन किंकिणिया ध्वनिशून्य हुई मानो सुरति की समाप्ति पर कामिनी चुप हों। घन्टियों ने घनघन शब्द करना ऐसा छोड़ दिया मानो मेंढ़कों के लिए ग्रीष्मकाल आ गया हो अनेक बार प्रेरणा देने पर विमान नहीं चल पा रहा है मानो महामुनि के आतंक से प्राण नहीं छोड़ता है ।
मारो मारो करते हुए लक्ष्मण ने रावण के सिरों को तोड़ दिया मानो रावण का अनीत-फल हो । उसके पुनः चार सिर निकल आये मानो पृथ्वी पर कमल के फूल खिले हों। उनके कटने पर पुनः आठ सिर उग आये मानो नाग-फण में नाग-फण हों। इसी क्रम से वे बढ़ते रहे ।
दशानन भयंकर युद्ध करता हुआ पृथ्वी पर गिरा। उस भीषण युद्ध की दशा देखने हेतु अन्तःपुर स्वयं पहुँचा । उसने देखा