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________________ अपभ्रंश भारती7 भय-भीसण कोवाणल-सणाह । णं धरएँ समुब्भिय पवर वाह ॥ णह सरि-रवि-कमलहों कारणत्थि । अहवइ णं अब्भुद्धारणत्थि ॥ णं घुसलइ अब्भ-चिरिड्डिहिल्लु । तारा-वुव्वुव-सय-विड्डिरिल्लु ॥ ससि-लोणिय-पिण्डउ लेवि धाइ । गह-डिम्भहों पीहउ देइ णाई ॥ अहवड किं वहणा वित्थरेण । णं णहयल-सिल गेण्हड सिरेण ॥ णं हरि-वल-मोत्तिय-कारणेण । महि-गयण-सिप्पि फोडइ खणेण ॥ 37.1 - कोपानल से दग्ध भय-भीषण ऐसी लगती थी मानो वसुन्धरा ने प्रवर बाँह उठा ली हो। अथवा मानो रवि और कमल के लिए आकाश-गंगा उत्पन्न हो अथवा बादलरूपी दही मथती हो (अथवा) तारारूपी सैकड़ों बुद्बुद हों । (अथवा) चन्द्ररूपी नवनीत का पिण्ड लिये हुए ग्रहरूपी बच्चों हेतु पीढ़ा लगाने के लिए दौड़ी हो । अथवा बहुत विस्तार से क्या ? मानो उसने वह आकाशरूपी शिला उठा ली हो। मानो क्षणभर में राम-बलराम मोतियों के लिए पृथ्वी और नभरूपी सीपी को तोड़ना चाहते हों। घत्ता - एए णरवइ गय-सन्दणेहिँ परिट्ठिय। समुह दसासहो णं उवसग्ग समुट्ठिय ॥ 60.5 " - ये नर श्रेष्ठ (राजा) गजरथ पर प्रतिष्ठित हुए मानो रावण के सम्मुख संकट प्रतिष्ठित हो। एए णरवइ सयल वि तुरय-महारह । णाइँ णिसिन्दहाँ कुद्धा कूर महागह ॥ 60.6 - ये राजा सभी महाअश्व रथोंवाले ऐसे लगते थे मानो क्रूर महाग्रह निशाचरों पर क्रुद्ध हो गये हों। कुमार किष्किंध नरेश और निराश्रित नृपों की सेनाएं आपस में उत्साहपूर्वक भिड़ती हैं तो कवि अनगढ़ शब्दों के माध्यम से उत्प्रेक्षित करता है - साहणइ मि अवरोप्परु भिडन्ति । णं सुकइ-कव्व-वयण' घडन्ति ॥ भञ्जन्ति खम्भ विहडन्ति मञ्च । दुक्कवि-कव्वालाव व कु-सञ्च ॥ हय गय सुण्णासण संचरन्ति । णं पंसुलि-लोयण परिभमन्ति ॥ .7.5 - सेनाएँ एक-दूसरे पर भिड़ीं मानो सुन्दर कवियों के वचन आपस में मिल गये हों। भागते हुए मंच के खम्भे टूट पड़े मानो दुष्ट कवियों के अगठित काव्य-वचन हों। आसन से शून्य अश्व और गज ऐसे घूम रहे थे मानो वेश्याओं के नेत्र घूम रहे हों। वीर हनुमान युद्ध-प्रांगण में उत्साह-पूर्वक युद्ध करता है। उसके प्रति स्वयंभू का कथन कितना रोचक बन जाता है - हणुवन्तु रणे परिवेढिज्जइ णिसियहिँ । णं गयणयले वाल दिवायरु जलहरे हिँ ॥ पर-वलु अणन्तु हणुवन्तु एक्कु । गय-जूहहाँ णाइँ मइन्दु थक्कु ॥ आरोक्कइ कोक्कइ समुहु थाइ । जहिँ जहिँ जे थटु तहिँ तहिँ जे धाइ ॥ गय-घड भड-थड भजन्तु जाइ । वंसत्थले लग्गु दवग्गि णाई ॥ एक्कु रहु महाहवे रस-विस? । परिभमइ णाई वले मइयवटु ॥ 65.1
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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