SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 अपभ्रंश भारती7 (आहत-लक्ष्मण का समाचार पाकर) दशरथ-पुत्र भरत के रोने पर समस्त परिजन रोने लगे। इस स्थिति का अवलोकन कीजिए - दुक्खाउरु रोवइ सयलु लोउ । णं चप्पेवि भरिउ सोउ ॥ रोवइ भिच्चयणु समुद-हत्थु । णं कमल-सण्डु हिम-पवण-घत्थु ॥ रोवइ अन्तेउरु सोय-पुण्णु । णं छिज्जमाणु संख-उलु वुण्णु ॥ 69.13 - सभी दुःखी लोग रोने लगे मानो कण-कण शोक से भर उठा हो। समुद्र हस्त और भृत्यसमूह ऐसे रोये मानो हिमपवन से आहत कमल-समूह हो। शोकयुक्त सभी अन्त:पुर रोने लगा मानो नाश होता हुआ दु:खी शंख-समूह हो। ___ शम्बूककुमार के वध होने पर खर-दूषण को क्रोधित करने के लिए अपने ही नखों से अपने आपको विदीर्ण करके चन्द्रनखा उसके पास (खर-दूषण के पास) पहुँची। उसका भयंकर स्वरूप उत्साहवर्धित था - लम्वन्ति लम्व-कडियल-समग्ग । णं चन्दण-लयहें भुअंग लग्ग ॥ वीया-मयलञ्छण-सण्णिहेहिँ । अप्पाणु वियारिउ णिय-णहिँ ॥ रुहिरोल्लिय थण-घिप्पन्त-रत्त । णं कणय-कलस कुंकुम विलित्त ॥ णं दावइ लक्खण-राम-कित्ति । णं खर-दूसण-रावण-भवित्ति ॥ णं णिसियर-लोयहाँ दुक्ख-खाणि । णं मन्दोयरिहें सुपुरिस-हाणि ॥ णं लंकहे पइसारन्ति सङ्क । णिविसेण पत्त पायाललङ्क ॥ णिय-मन्दिरे धाहावन्ति णारि । णं खरदूसणहो पइट्ठ मारि ॥ घत्ता - कुवारु सुणेप्पिणु धण पेक्खेप्पिणु राएँ वलेवि पलोइयउ ॥ तिहुयणु संघारेंवि पलउ समावि णाई कियन्तें जोइयउ ॥ 37.3 - लम्बे केश जो कटितल तक लटके थे ऐसा लगता था मानो चन्दनलता से सर्प लटके हों। द्वितीया के चन्द्रमा-सदृश उसने अपने आपको विदीर्ण कर लिया। रक्त की धारा से उसके स्तन लाल हो गये, मानो केसर से रंजित स्वर्णकलश हो, मानो वह राम-लक्ष्मण की कीर्ति दिखाती हो (अथवा) मानो खर-दूषण और रावण की भवितव्यता। मानो निशाचर लोक हेतु दुःख की खान, मानो मंदोदरी के पुरुष की हानि। (अथवा) मानो लंका में प्रवेश करनेवाली शंका हो जो क्षणभर में पाताल लंका में पहुँची। वह नारी अपने घर में धाड़ मारकर इसप्रकार रोने लगी मानो खर-दूषण के लिए 'मारी' ने प्रवेश किया है। विलाप करती हुई उस स्त्री को देखने हेतु मुड़कर राजा ने ऐसे देखा मानो त्रिभुवन को संहार और प्रलय हेतु कृतान्त ने देखा हो। चन्द्रनखा के रौद्र रूप का प्रदर्शन कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से कराया है - चन्दणहि अलज्जिय एम पगज्जिय 'मरु-मरु भूयहुँ देमि वलि' ॥ णिय-रूवें वड्ढिय रण-रसें अड्ढिय रावण-रामहुँ णाइँ कलि ॥ 37.0 - रण-रस से आप्लावित अपने आकार को बढ़ाती हुई राम-लक्ष्मण के लिए वह (चन्द्रनखा) साक्षात् कलह-सदृश मालूम पड़ती थी।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy