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________________ अपभ्रंश भारती 7 35 - विमान से जाती हुई (अंजना) के हाथ से छूटकर हनुमान ऐसा गिरा मानो आकाशरूपी लक्ष्मी का गर्भ हो। हनुमान धरती पर गिरे मानो शिला-तल पर विद्युत-समूह । विद्याधरों ने उसे ऐसे उठाया मानो जिन को देवगण ने जन्म के समय उठाया हो। किसी ने उस बच्चे को अञ्जना को सौंप दिया, वह इतनी प्रसन्न हुई मानो उसे खोई हुई वस्तु मिल गई हो। राम और लक्ष्मण ने वन जाने के लिए घर छोड़ दिया, उनके न रहने पर उनके राजभवन की स्थिति का करुणामयी चित्र निम्न प्रकार से प्रस्तुत है - सोह ण देइ ण चित्तहाँ भावइ । णहु णिच्चन्दाइच्चउ णावइ ॥ णं किय-उद्ध-हत्थ धाहावड़। वलहाँ कलत्त-हाणि णं दावड़॥ भरह णरिन्दहाँ णं जाणावइ। 'हरि-वल जन्त णिवारहि णरवइ' ॥ पुणु पाआर-भुयउ पसरेप्पिणु । णाइँ णिवारइ आलिङ्गेप्पिणु ॥ घत्ता - चाव-सिलीमुह-हत्थ वे वि समुण्णय - माणा । तहाँ मन्दिरहों रुयन्तहाँ णाइँ विणिग्गय पाणा ॥ 23.5 - - (राम के न होने से) न राजमहल सुशोभित है न चित्त अच्छा है, भवन हाथ उठाकर चिल्लाता है वह ऐसा लगता है मानो सूर्य और चन्द्ररहित आकाश हो। मानो राम की पत्नी का हरण दिखाता हो (अथवा) मानो भरत को यह बता रहा हो कि राम और लक्ष्मण को रोको, फिर भुजाओं को पसारकर एवं आलिंगन करके मानो रोक रहा था। हाथ में धनुष-बाण लिये हुए उन्नतमान वे दोनों क्रन्दन करते हुए राजभवन से ऐसे निकल गये थे जैसे प्राण ही निकल गया हो। शम्बूककुमार और खरदूषण के यमपुर पहुँचने का समाचार चन्द्रनखा से पाकर दशानन अत्यन्त दु:खी हुआ - णं मयलंछणु णिप्पहु जायउ । गिरि व दवग्गि-दड्दु विच्छायउ ॥ णं मुणिवरु चारित्त-विभट्ठउ । भविउ व भव-संसारही तट्ठउ ॥ 'वाह भरन्त-णयणु मुह-कायरु । गहेंण गहिउ णं हूउ दिवायरु ॥ 41.2 - (चन्द्रनखा के दीन वचनों को सुनकर रावण मुख नीचा कर लेता है।) मानो चन्द्र कांतिहीन हो गया। दावानल में दग्ध पर्वत प्रभाहीन हुआ हो अथवा मुनि ही चरित्रभ्रष्ट हुआ हो। भवरूपी संसार से त्रसित जिसकी आँखें आह से भरी हैं, ऐसा कातर मुख हुआ मानो राहु ग्रह से ग्रस्त सूर्य हो। लक्ष्मण के आहत होने पर राम की मार्मिक एवं शोकाकुल करुण स्थिति का चित्रण निम्न प्रकार है - भाइ-विओएं कलुण-सरु रणें राहवु रोवइ जाहिँ । णं उसासु जणद्दणहाँ पडिचन्दु पराइउ ताहिँ ॥ 68.0.1 - अपने भाई (लक्ष्मण) के वियोग में (राम) रो ही रहे थे कि प्रतिचन्द्र पास में आया मानो वह लक्ष्मण के ल्गिा उच्छ्वास हो।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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