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अपभ्रंश भारती 7
डझन्तउ उरु विरहाणलेण । णं वुज्झावइ अंसुअ-जलेण ॥ परिवार-भित्ति-चित्ताइँ जाइँ। णीसास-धूम-मलियाई ताई ॥ ढिल्लइँ आहरणइँ परियलन्ति । णं णेह-खण्ड-खण्डइँ पडन्ति ॥ 18.9 - विरह-ज्वाला से दग्ध वह (अंजना) ऐसी लगती थी मानो उसके हृदय को अश्रुधारा शांत नहीं कर पा रही है। उसके ढीले परिधान ऐसे लगते मानो उसके स्नेह खण्ड-खण्ड होकर गिर रहे हों। ___करुण रस के चित्रण में सिद्धहस्त कवि खर-दूषण के द्वारा रावण को पत्र भिजवाता है जो रावण के सम्मुख इस प्रकार पड़ा है -
पडिउ णाई वहु-दुक्खहँ भारु। णाइँ णिसायर-कुल-संघारु ॥
णाइँ भयंकरु कलहहो मूलु । णाइँ दसाणण-मत्था-सूलु ॥ 38.1 - मानो अतीव दु:ख का भार पड़ा हो। मानो निशाचर कुल का संहार हो (अथवा) मानो भयंकर कलह का मूल हो (अथवा) मानो दशानन के मस्तक का दर्द हो।
यह सत्य है कि दुखी जीवन में सभी दृश्यमान वस्तुएँ ऐसी लगती हैं मानो वे दुःख दे रही हैं । महाकवि सूर के शब्दों में - "जोइ-जोइ सुखद-दुखद अब तेइ-तेइ" के सदृश सीता-विहीन राम दु:खी हैं अत: राम को अब वन कष्टकारी है -
णीसीयउ वणु अवयज्जियउ । णं सररुहु लच्छि - विसज्जियउ ॥ णं मेह-विन्दु णिव्विज्जुलउ । णं मुणिवर-वयणु अ-वच्छलउ । णं भोयणु लवण-जुत्ति-रहिउ । अरहन्त-विम्वु णं अ-वसहिउ ॥
णं दत्ति-विवज्जिउ किविण-धणु। तिह सीय-विहूणउ दिट्ठ वणु॥ 39.1 - सीता-रहित वन राम को ऐसा लगा मानो शोभाहीन कमल हो (या) मेघ-समूह विद्युतविहीन हो। (या) मानो वात्सल्यरहित मुनिवचन हो। (अथवा) नमकरहित भोजन हो। (अथवा) आसन से हीन जिन-प्रतिबिम्ब हो मानो दान से रहित कृपण हो ।
संकट की स्थिति में करुण-क्रन्दन करती हुई अपने मामा को पाकर (अंजना) फूट-फूटकर रोने लगी -
जं लइउ आसि पुण्णेहिँ विणु। तं दिण्णु विहिहें णं सोय-रिणु ॥ घत्ता - सरहसु साइउ देन्तऍहिँ जं एक्कमेवक आवीलियउ ।
अंसु पणालें णीसरइ णं कलुणु महारसु पीलियउ ॥ 19.10 - (अजंना) जो पुण्यरहित हुई उसी से यह शोक-ऋण प्राप्त हुआ था। वे एक-दूसरे के आलिंगन में जकड़ उठे, मानो पीड़ित होकर महाकरुण रस अश्रुधारा के मिस बाहर निकला हो।
णीसरिउ वालु अइ-दुल्ललिउ । णं णहयल-सिरिहें गब्भुगलिउ ॥ मारुइ दवत्ति णिवडिउ इलहें । णं विज्जु-पुंजु उप्परि सिलहें ॥ उच्चाऍवि णिउ विज्जाहरेंहिँ । णं जम्मणे जिणवरु सुरवरेंहिँ ॥ अञ्जणहें समप्पिउ जाय दिहि । णं णठ्ठ पडीवउ लधु णिहि ॥ 19.11