________________
अपभ्रंश भारती 7
कहि मि आयवत्तइँ ससि-धवलइँ । णं रण- देवय-अच्चण-कमलइँ । कहि मि तुरङ्ग वाण - विणिभिण्णा । रण- देवयहें णाइँ वलि दिण्णा ॥ कहि मिसरेहिं धरिय णहें कुञ्जर । णं जल धारा- ऊरिय जलहर ॥ कहि मि रहङ्ग- भग्ग थिय रहवर । णं वज्जासणि-सूडिय महिहर ॥ तेण चक्क सेज्जहिं चर्डेवि रण-वहुअऍ समाणु णं सुत्तउ ॥
76.6
कहीं पर चन्द्र - सदृश श्वेत छत्र ऐसे पड़ थे मानो रणरूपी देव की अर्चना हेतु कमल । कहीं बाणों से क्षत-विक्षत अश्व पड़े थे मानो रणरूपी देव के लिए बलि दी गई है। कहीं बाणों द्वारा हाथी आकाश में छेदा जा चुका था जो ऐसा मालूम होता था मानो जलधारा से युक्त बादल हो । कहीं टूटे पहियों के रथ तो कहीं, वज्राशनि द्वारा चूर-चूर पर्वत थे। (रावण) मानो आज रणरूपी वधू के समान चक्र की शय्या पर चढ़कर सानन्द सो रहा 1
युद्ध-वर्णन प्रसंग में वीभत्स रस का चित्र उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से प्रस्तुत है। रणक्षेत्र में कटे हुए दीर्घ छत्र मानो यमराज के लिए विशाल थाल हों । खण्डित रथ-चक्र मानो कलिकाल का आसन हो । कटे हुए हाथ-पैर एवं नर-मुण्ड समूह मानो रसोइयों ने यमराज हेतु विभिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार किये हों। इसी प्रकार लाल-लाल संध्या मानो सिंदूर से युक्त सजी हुई गजघटा अथवा वीर के रक्तमांस से लिपटी और आनन्द लेती हुई निशाचरी हो ।
इसके अतिरिक्त स्वयंभू ने उत्प्रेक्षा के लिए अनेक कल्पनाएँ की हैं। 'पउमचरिउ' महाकाव्य का कोई विरला ही कडवक ढूँढने से मिलेगा जिसमें कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार के मोह का परित्याग किया हो। कतिपय अन्य उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं
घत्ता
आपस
-
घत्ता -
पुरउ परिट्ठिय सेण्णों भय - परिहरणहीँ ।
णं धुर-धोरिय छवि समास वायरणहों ॥ 60.4
X
X
x
स पयावई कड्ढिय - चावइँ सर-सन्धन्त-मुअन्ताइँ । णं घडियइं विण्णि वि भिडियइँ पयइँ सुवन्त - तिङन्ताइँ |
X
X
X
को वि धरिज्जइ वाणेहिँ एन्तउ । णं गुरुहिँ णरु णरऍ पडन्तउ ॥
X
X
-
X
X
59.5
णिग्गड कुम्भयण्णु मणे कुइयउ णहयले धूमकेउ णं उइयउ ॥ भयरहित सेना के सम्मुख विभीषण ऐसे खड़ा हुआ मानो छः समास खड़े हों ।
X
X
X
61.1
x
जिस प्रकार शब्दरूप तथा क्रियारूप आपस में मिलने के लिए निष्पन्न होते हैं मानो वे दोनों
में
युद्ध के लिए बनी थी ।
39
61.2
X