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सूर्य का उदय होना कवि की दृष्टि में रात्रि को खोजना है
विमले विहाणए कियण पयाणए उययइरि - सिहरे रवि दीसइ ।
'मइँ मेल्लेप्पिणु णिसियरु लेप्पिणु कर्हि गय णिसि' णाइँ गवेसइ ॥ 14.0.1
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• विमल प्रातः होने पर उसने (रावण ने) प्रयाण किया। उदयगिरि की चोटी पर सूर्य दिखाई पड़ा मानो खोजते हुए कि मुझे छोड़कर तथा चन्द्र को लेकर रात्रि कहाँ गयी है ?
आगमन पर सब कितने मद से भर जाते हैं, कवि की कल्पना देखने
यही नहीं बसन्त योग्य है -
अपभ्रंश भारती 7
पेक्खॆवि एन्तहीँ रिद्धि वसंतहों महु - इक्खु - सुरासव-मन्ती । म्मय - वाली भुम्भल - भोली णं भमइ सलोणों रत्ती ॥
14.2
• रिद्धि से युक्त वसंत को आते देख मधुर ईख और सुरा से मत्त भोली-भाली नर्मदा नदीरूपी बाला मानो कामदेव की रति की भाँति मचल उठी हो ।
घत्ता
नर्मदा-रूपी बाला अपने प्रिय (समुद्र) के पास जा रही है। कवि अभिसारिकारूपी नदी के परिधान एवं उसके शृंगार-प्रसाधन का वर्णन बड़े मनोरम ढंग से करता है -
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णम्मयाएँ मयरहरहीँ जन्तिएँ । णाइँ पसाहणु लइउ तुरन्तिऍ ॥ घवघवन्ति जे जल - पब्भारा । ते जि णाइँ णेउर झङ्कारा ॥ पुलिइँ जाइँ वे वि सच्छायइँ । ताइँ जे उड्ढणाइँ णं जायइँ ॥ जं जलु खलइ वलइ उल्लोलइ । रसणा- दामु तं जिणं घोलइ ॥ जे आवत्त समुट्ठिय चङ्गा । ते जि णाइँ तणु-तिवलि-तरङ्गा ॥ जे जल-हत्थि - कुम्भ सोहिल्ला । ते जि णाइँ थण अधुम्मिल्ला ॥ जो डिण्डीर-णियरु अन्दोलइ । णावइ सो जें हारु खोलइ ॥ जं जलयर-रण-रंगिउ पाणिउ । तं जि णाइँ तम्बोलु समाणिउ ॥ मत्त-हत्थि-मय-मइलिउ जं जलु । तं जि णाइँ किउ अक्खिहिँ कज्जलु ॥ जाउ तरंगिणिउ अवर ओहउ । ताउ जि भंगु राउ णं भउहउ ॥ जाउ म पन्ति अल्लीणउ । केसावलिउ ताउ णं दिण्णउ ॥
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मझें जन्तिऍ मुहु दरसन्तिऍ माहेसर-लंक-पईवहुँ । मोहुप्पाइउ णं जरु लाइउ तहुँ सहसकिरण - दहगीवहुँ ॥ 14.3
- (वह) नर्मदारूपी बाला समुद्र को जाती हुई अपनी साज-सज्जा धारण कर लेती है। कलकल करती हुई जलधाराएं मानो उसके नूपुर की ध्वनि हो और चमकीले किनारे उसकी ओढ़नी । उछलता एवं खलबल करता हुआ उसका जल मानो उसके करधनी की ध्वनि हो। उसमें उठते हुए आवर्त उसके शरीर की त्रिवली तरंग जैसी थी। जो उसमें जल गजों के कुम्भस्थल शोभायमान हो रहे थे वही मानो उसके अधखुले स्तन सुशोभित थे । जलचरों के युद्ध से रंगा हुआ जल मानो ताम्बूल था । मद से युक्त गज के मदजल से मटमैला जल ही मानो नेत्रों का जल था ।